पूर्णिमा वर्मन के दोहे
भोर जली होली सखी, दिनभर रंग फुहार।टेसू की अठखेलियाँ, पूर गयीं घर द्वार।।
जोश, जश्न, पिचकारियाँ, अंबर उड़ा गुलाल।
हुरियारों की भीड़ में, जमने लगा धमाल।।
शहर रंग से भर गया, चेहरों पर उल्लास।
गली गली में टोलियाँ, बाँटें हास हुलास।।
हवा हवा केसर उड़ा, टेसू बरसा देह।
बातों में किलकारियाँ, मन में मीठा नेह।।
ढोलक से मिलने लगे, चौताले के बोल।
कंठों में खिलने लगे, राग बसंत हिंदोल।।
मंद पवन में उड़ रहे, होली वाले छंद।
ठुमरी, टप्पा, दादरा, हारमोनियम, चंग।।
नदी रंग की चल पड़ी, सबका थामे हाथ।
जिसको रंग पसंद हो, चले हमारे साथ।।
घर-घर में तैयारियाँ, ठंडाई पकवान।
दर-देहरी पर रौनकें, सजे-धजे मेहमान।।
होली की दीवानगी, फगुआ का संदेश।
ढाई आखर प्रेम के, द्वेष बचे ना शेष।।
मन के तारों पर बजे, सदा सुरीली मीड़।
शहरों में सजती रहे, हुरियारों की भीड़।।
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