ओंम प्रकाश नौटियाल के दोहे
पखवाड़े भर जश्न है फिर लम्बा बनवास।भारत में अब तक यही, हिन्दी का इतिहास।।
हर्षित हो कर कह रही, सावन की बरसात।
धरती ने पानी पिया, बिन जाने घन जात।।
रोया मैं बरसात में, किसने जानी पीर।
आँसू हैं ये आँख के, या बरसाती नीर।।
रवि किरणों ने देख ली, पावस की बौछार।
पर्वत को पहना गई, इंद्रधनुष का हार।।
पाया माँ की गोद में, ममता का संसार।
बडे चैन से सो गया, बचपन पाँव पसार।।
तीर्थ किये मंदिर गये, नित्य नवाया शीश।
बिन माँगे पर मिल गया, माता का आशीष।।
कितना भी सुन लीजिये, मधुर मदिर संगीत।
अब तक गूंजें कान में, माँ के लोरी गीत।।
रावण दिखते हर तरफ, मचा रहे उत्पात।
भीतर से राक्षस हुई, इंसानों की जात।।
पत्ते जब बूढ़े हुए, चली वृक्ष ने चाल।
मौसम पतझड़ देखकर, घर से दिया निकाल।।
लाश सामने देखकर, यही सोचे श्मशान।
क$फन ओढक़र क्यों लगें, सब बंदे इंसान?
खेतों में उगती कभी, फसलें गेहूं धान।
उर्वर माटी की बढ़ी, अब उग रहे मकान।।
क्यों होना भयभीत रे, दुर्दिन कर के याद।
आना तय है भोर का, स्याह रात के बाद।।
राजनीति के मसखरे, बदलें पल पल रंग।
धन पद कद जो दे सके, चलें उसी के संग।।
सागर पानी पी गया, नदियाँ हुई उदास।
हाय राम हम लुट गईं, रत्नाकर के पास।।
व्यर्थ नहीं कुछ सृष्टि में, प्रभु का यही कमाल।
जनता की हर विपद में, रोने को घडिय़ाल।।
शीत लहर ऐसी चली, देखा दिवस न रात।
झुग्गी झोंपड़ झाँकती, अकड़े अकड़े गात।।
जात धर्म के भेद बिन, सबका मिले दुलार।
धर्म निरपेक्ष है अगर, तो बस ’भ्रष्टाचार’।।
रूप कई हैं घूस के, नकद जमीन मकान।
जाने कब किस रूप में, मिल जाये यह दान।।
सात समंदर पार से, मिला ज्ञान यह खूब।
प्रेम दिवस बस नियत है, नियत नहीं महबूब।।
खून डकैती गुण्डई, इज्जत की है लूट।
आजादी यह बंद हो, हों हम तभी अटूट।।
सदा धूप में साथ है, तन की शीतल छाँव।
चलें उम्रभर साथ जो, वह हैं अपने पाँव।।
तब लगती है चोट जब, उलटे हों हालात।
पापी कोई और हो, जहर पिए सुकरात।।
बड़ी वेदना की घड़ी, छूटे जब देहात
पीपल नीम उदास हों, मन रोए बरसात।।
पीर सहन होती नहीं, भूखा मरे किसान।
देश लूट मस्ती करें, जिनके हाथ कमान।।
बदले पल पल रंग वह, जिसका नहीं उसूल।
अपनी बस सेवा करे, बाकी सब कुछ भूल।।
जिस भाषा मे सोचते, उसमें हो संवाद।
तभी आपकी सोच का, हो सच्चा अनुवाद।।
नित्य सुने जनतंत्र में, ऐसे काण्ड अनेक।
सत्य बैठकर सामने, रोता घुटने टेक।।
जल कुंभी को ढूँढता, प्यासा काग अधीर।
कंकर पत्थर हर जगह, नहीं बूंद भर नीर।।
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