मनोज अबोध के दोहे
आम आदमी की व्यथा, ये मेरा मजमून।चौराहे पर क्यों हुआ, मानवता का खून।।
आँखों में जब से घुला, यादों का मकरन्द।
कोहरे में लिपटी मिले, बस तेरी ही गन्ध।।
जब-जब पहले प्यार की, खोली गई किताब।
पृष्ठों में हँसते मिले, सूखे हुए गुलाब।।
एक टपरिया फूस की, कुछ मीठे अहसास।
इतनी दौलत और है, अभी हमारे पास।।
संबंधों की डोर को, इतना भी मत खींच।
हो छत्तिस का आँकड़ा, तेरे मेरे बीच।।
उन पर भारी बीतती, श्शििर ऋतु की रात।
सिर पर जिनके छत नहीं, हैं अधनंगे गात।।
जिसके पीछे भीड़ है, उसके सिर है ताज।
देशभक्त को देश में, कौन पूछता आज।।
झूठे हैं सब आँकड़े, देश बना खुशहाल।
बिन रोटी के क्यों मरा, फिर गरीब का लाल।।
उसने रोपी झाडिय़ाँ, मैंने कोमल दूब।
हम दोनों के प्यार की, रही कहानी खूब।।
जिसको पढऩे के लिए, नहीं कोई बेताब।
अपना तो जीवन रहा, ऐसी खुली किताब।।
जिनको समझा फूल-सा, निकले सारे शूल।
जीवन दर्शन में हुई, बस इतनी-सी भूल।।
झंडे, भाषण, रैलियाँ, मजहब का फरमान।
इनमें बँटकर रह गया, पूरा हिन्दुस्तान।।
मैं धमनी तू रक्त है, मैं बचपन तू खेल।
मैं दिल तू धडक़न सखे, मैं बाती तू तेल।।
नयनन नयनन मंॠत्रणा, अधरों-अधरों मौन।
दिल के गहरे फैसले, आखिर समझा कौन।।
बचपन की अठखेलियाँ, अम्मा की फटकार।
जीवन में ये सुख सखे, मिले न बारम्बार।।
हरे-भरे सब लोग हों, हरा-भरा व्यवहार।
धुंध धुँए से मुक्त हो, हरा-भरा संसार।।
मादक नयनों से तेरे, चख ली थी इक बार।
उम्र हुई पर आज तक, उतरा नहीं $खुमार।।
दीप तुम्हारे नेह का, जला हृदय के द्वार।
ज्योतिर्मय होता रहा, मन का हर अँधियार।।
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