दिनेश शुक्ल के दोहे
नमक बेच पारा हँसा, अंधकार के गाँव।भ्रष्टाचारी वक़्त के, थे चाँदी के पाँव।।
च्लोबल भ्रष्टाचार था, च्लोबल था व्यापार।
भ्रष्ट व्यवस्था तंत्र था, पूँजी का बाज़ार।।
गूँगा मिला अवाम यह, बहरा मिला निज़ाम।
भ्रष्ट व्यवस्था की गली, सुविधा मिली $गुलाम।।
कठिन दुखों का व्याकरण, कठिन दुखों का पाठ।
कठिन समस्या भ्रष्टता, बिके झूठ के हाट।।
लाभ-शुभों का यह गणित, भ्रष्टाचार मु$फीद।
आम आदमी हो गया, दुख की फटी रसीद।।
छल, प्रपंच, मक्कारियाँ, लोग, मतलबी, शेष।
देश हमारा हो गया, घोटालों का देश।।
रोटी, भाषा, सभ्यता, चहरे सरल पवित्र।
गिरवी भ्रष्टाचार ने, सारे रखे चरित्र।।
संविधान के नाम पर, सत्य हुआ लाचार।
टी.वी. पर हँसता रहा, घर-घर भ्रष्टाचार।।
भूख, सियासत, रोटियाँ, डूब, किसान, ज़मीन।
अनगिन भ्रष्टाचार के, थे चहरे आमीन।।
सुख भी बड़ अजीब थे, दुख भी बड़े अजीब।
दोनों भ्रष्टाचार के, ढोते रहे सलीब।।
$कद से, बे $कद, सत्य ने, क्या खोई पहचान।
भ्रष्ट समय से बढ़ गया, धन, बल से सम्मान।।
सत्य बोलना है कठिन, झूठों के संसार।
चहुँ-दिश भ्रष्टाचार का, फैला है व्यापार।।
जनता, देश, समाज, घर, शहर, गाँव, दिन, रात।
भ्रष्ट बेशरम वक्त यह, करे सत्य की बात।।
पुलिस, लाठियाँ, गोलियाँ, बर्बर, अत्याचार।
सुघड़ चरित्रों का यहाँ, देखा भ्रष्टाचार।।
सत्ता, ताकत, भ्रष्टता, सुविधा, सुख, इंसान।
पैसा भ्रष्टाचार था, पैसा था भगवान।।
भ्रष्टाचारी दीमकें, संसद की दीवार।
सच को कहती झूठ यह, है, अपनी सरकार।।
रोज झूठ ने हैं गढ़े, मुखड़े भले नवीन।
भ्रष्टाचारी लोग थे, कितने यहाँ प्रवीण।।
अपने चेहरे ढूँढ़ते, कहाँ खो गये लोग।
भ्रष्ट समय की राशियाँ, पढ़ता है आयोग।।
तस्कर, बिल्डर, माफिया, लूट, अपहरण , क्लेश।
हाथ दलालों के बिका, गाँधी तेरा देश।।
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