सतपाल सिंह चौहान ‘भारत’ के दोहे
धर्मग्रन्थ सब कह रहे, मानवता है एक।फिर भी क्यों नित हो रहे, नर संहार अनेक।।
वर्ग-भेद से कब हुई, संतों की पहचान।
इनकी कोई जात है, तो केवल इन्सान।।
काज़ी के दरबार में, फरियादी है गाय।
राजा चारा खा गया, कौन करेगा न्याय।।
बोरी भरे बिसातिया, झोली भरे फकीर।
बोवणिया भूखा मरे, यह कैसी तकदीर।।
मूल्यों का संसार में, आया कैसा अंत।
सभी अधर्मी हो गये, क्या राजा क्या संत।।
खाट, खटोले, पीढिय़ाँ, चरखे करें विलाप।
तुलसी आँगन से गयी, किसका है अभिशाप।।
भामाशाहों ने यहाँ, किया बड़ा उपकार।
न्यौछावर की देश पर, धन-संपदा अपार।।
बस्ती-बस्ती में खुदा, घट-घट बैठे राम।
धरती आदमखोर है, किसको दें इलज़ाम।।
बिन सोचे मत कीजिये, किसी बात का तोड़।
उससे पहले सोचिये, लेती है क्या मोड़।।
मन्दिर, मसजिद, माफिया, कहाँ आत्मानन्द।
भय से नर-नारी हुए, घर के भीतर बंद।।
चौक-चौक पर मूरती, घर-आँगन मतिमंद।
वर्ग-धर्म के नाम पर, करते भारत बंद।।
धर्म-कर्म के साथ तू, मानवता को जोड़।
सबको सच्चा प्यार दे, नफरत से मुझ मोड़।।
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