गुलशन मदान के दोहे
हिंसा भ्रष्टाचार है, लूटपाट और खून।एक अकेला क्या करे, बेचारा कानून।।
इक गठरी में है पड़ा, बँधा हुआ ईमान।
सत्य खड़ा हो पूछता, यह किसका सामान।।
सच को हमने कर दिया, कोठरियों में बंद।
रोज झूठ से जब मिला, सुख सुविधा आनंद।।
किसना की बेटी गई, पंचों के घर आज।
लाई इज़्ज़त बाप की, देकर अपनी लाज।।
मत पूछो सरपंच जी, इन शहरों का हाल।
भूख गरीबी बेबसी, बंद भीड़ हड़ताल।।
दिल में तो हरदम रहे, मीलों लम्बे खेत।
लेकिन आँखों को मिली, रोज सुलगती रेत।।
बेचे हमने गाँव में, पशु खेत खलिहान।
हमें शहर में बस मिला, गज भर एक मकान।।
कल जिस चिडिय़ा ने भरी, ऊँची इक परवाज।
पंजों में भर ले गया, आज उसे इक बाज।।
अजऱ्ी ले सर ने कहा, लाओ पेपरवेट।
हाथ जोडक़र प्रार्थी, बोला क्या है रेट।।
रे बुधवा! इस दौर से, कुछ तो लू तू सीख।
अब रसीद बुक के बिना, नहीं माँगते भीख।।
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