रामनाथ यादव 'बेख़बर' के दोहे
वन पाखी वन फूल की, व्यर्थ हुई हर आस।आकर राजोद्यान तक, लौट गया मधुमास।।
दिन-दिन प्यासे भेड़िये, पीते आये ख़ून।
बुझी नहीं है प्यास पर, बढ़े और नाखून।।
सब कुछ जग में छोड़कर, बैठा तेरे पास।
बंजर मन में उग गयी, नर्म रेशमी घास।।
जब भी कोई गाँव में, रख देता है पाँव।
स्वागत करने दौड़ती, कड़ी धूप में छाँव।।
जिसको पाला लाड़ से, प्यार दिया भरपूर।
पंख निकलते उड़ गयी, चिड़िया घर से दूर।।
दृश्य अजूबा देखकर, अचरज में हूँ मित्र।
सूरज बैठा रच रहा, अंधकार का चित्र।।
हवा निगोड़ी आ गयी, लगा पाँव में पंख।
घूम-घूम कर बाग़ में, बजा रही है शंख।।
बढ़ते-बढ़ते बढ़ गये, हाथों के नाखून।
हैवानों को चाहिए, इंसानों का ख़ून।।
हवा चमन से कर रही, फिर-फिर यही सवाल।
कौन फूल के गाल पर, मल कर गया गुलाल।।
प्यासी धरती मर रही, प्यासा है नलकूप।
सारा पानी पी गयी, युग की प्यासी धूप।।
बिना बुलाये आ गये, दुख के पर्वत पास।
मुझको हँसता देखकर, होने लगे उदास।।
कटते तरुवर देखकर, झट से बोला गाँव।
मेरे सिर पर छोड़ दो, मेरे सिर की छाँव।।
कहीं बिलखती देवकी, सहती कारावास।
कहीं जानकी आज भी, काट रही वनवास।।
किसको संन्यासी कहूँ, किसको बोलूँ सिद्ध।
नोच रहे हैं आज भी, अबलाओं को गिद्ध।।
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