रमेश प्रसून के दोहे
पर्वत है तो खाइयाँ, रहतीं उसके साथ।उच्चस्थों का नीचपन, नहीं छोड़ता हाथ।।
सूरज में ठंडक लगे, चन्दा में यदि ताप।
गयी व्यवस्था है बिगड़, समझो नभ की आप।।
साथ लिये घूमा बहुत, वह फूलों की गन्ध।
इससे छुप पायी नहीं, ख़ुद उसकी दुर्गन्ध।।
विषधर विष का कर रहे, चारों ओर प्रसार।
विष से विष को मारना, है इसका उपचार।।
संग पतीलों के खुली, चमचों की तक़दीर।
कोई हलुवा ले उड़ा, मिली किसी को खीर।।
नहीं चाहती दाल जब, हाथ न उसमें डाल।
सिर्फ़ न काला दाल में, है काले में दाल।।
तुर्स हवाएँ कर रहीं, फिर पत्थर से वार।
मौसम का षड़यंत्र यह, हल केवल प्रतिकार।।
नाव डुबोने की लगी, लहर-लहर में होड़।
उठ चल माँझी जोड़ दे, जहाँ-जहाँ है तोड़।।
नीयत ऐसी हो गयी, जबसे पाले श्वान।
रहे दूसरों से मिले, टुकड़ों पर ही ध्यान।।
वृक्ष, नदी, जल, ताल ने, तोड़े जब से नेह।
टूट-टूट गिरती रही, चुप पर्वत की देह।।
प्रायोजन अब बन गया, इस युग की पहचान।
प्रायोजित विद्वान हैं, प्रायोजित सम्मान।।
लहरें चौंकी देख कर, नदी नाव संयोग।
मझधारों से जूझ कर, तट पर डूबे लोग।।
ठोकर खाकर कह उठी, सिर पर पड़ कर धूल।
मैं अब ऊँची और तू, है नीचे मत भूल।।
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