डॉ. देवेन्द्र आर्य के दोहे
ठहर अरी ओ जि़न्दगी, देख जगत के रंग।
दुख अब तक जीता नहीं, मैं हारा कब जंग।।
दुख आपद में नेह के, दृढ़ होते संबंध।
तेज हवा में फूल की, फैले अधिक सुगन्ध।।
सब कुछ अर्पण कर उसे, भूख प्यास दिन रात।
पतझर में खिलने लगें, सौ वसंत के पात।।
अनजाने से हो गए, ये कैसे संबंध।
सूने घर में रम गई, मदिर-मदिर सी गंध।।
ऊपर-ऊपर सहज सब, भीतर-भीतर खार।
बाज़ारों में आ गए, नये-नये हथियार।।
होली में जल तो गई, मैं, हम, जन की पीर।
उजली चादर पर लिखे, आखर नेह कबीर।।
पंख दिए, मन हौसला, ऊँची भरो उड़ान।
संघर्षों का यह सफर, लिए खड़ा मुस्कान।।
प्रेम, प्यार, पनघट, मिलन, पींग सजी मनुहार।
चकित बटोही सोचता, अब सब हैं बाज़ार।।
सुधि से मैं करने लगा, मन-गुन की कुछ बात।
बूँद-बूँद दुख यूँ रिसा, ज्यों बेबस बरसात।।
जीवन हर पल जीत है, जीवन है विश्वास।
गिरकर भी सौ बार ज्यों, फिर चढऩे की प्यास।
दे न सका री जि़न्दगी, तुझे प्यार-सम्मान।
निपट कलेशों में कटे, अथ-इति के सोपान।।
नामुमकिन कुछ भी नही, बाँध चले जो काल।
वामन ने नापे यहाँ, नभ, धरती, पाताल।।
मिलकर चले कि उठ गया, गोवर्धन का भार।
घनन-घनन कर इन्द्र का, गया अहं सौ बार।।
गहरा पर शाश्वत नहीं, यह वैरी अँधियार।
मन का सूरज तो उठा, चलो क्षितिज के पार।।
जब से दो दो हाथ कर, लिखा नियति का भाल।
आपद् लौटी द्वार से, दुर्दिन हुए सुकाल।।
माँ अभाव में, भाव में, बनकर रही अनूप।
आँगन भर छाई रही, ज्यों अगहन की धूप।।
घोर कुहासा विनद् में, माँ ज्यो उजली भोर।
सोचेगा सौ बार दुख, आने पर इस ओर।।
माँ तो आशीर्वाद की, बहती निर्मल गंग।
सगर सुतों सा तारती, भर ममता के रंग।।
बेशक बैठ बज़ार में, निरखो उजली धूप।
माँ जैसी ममता कहाँ, माँ जैसा प्रतिरूप।।
क्षण कहते उसके सिवा, किसने थामा हाथ।
अपने भी दुख में गए, छोड़-छोडक़र साथ।।
तोड़ श्रंखला, युग बदल, नभ तक नहीं पड़ाव।
घर-घर यूँ जलता रहे, सूरजमुखी अलाव।।
दुख अब तक जीता नहीं, मैं हारा कब जंग।।
दुख आपद में नेह के, दृढ़ होते संबंध।
तेज हवा में फूल की, फैले अधिक सुगन्ध।।
सब कुछ अर्पण कर उसे, भूख प्यास दिन रात।
पतझर में खिलने लगें, सौ वसंत के पात।।
अनजाने से हो गए, ये कैसे संबंध।
सूने घर में रम गई, मदिर-मदिर सी गंध।।
ऊपर-ऊपर सहज सब, भीतर-भीतर खार।
बाज़ारों में आ गए, नये-नये हथियार।।
होली में जल तो गई, मैं, हम, जन की पीर।
उजली चादर पर लिखे, आखर नेह कबीर।।
पंख दिए, मन हौसला, ऊँची भरो उड़ान।
संघर्षों का यह सफर, लिए खड़ा मुस्कान।।
प्रेम, प्यार, पनघट, मिलन, पींग सजी मनुहार।
चकित बटोही सोचता, अब सब हैं बाज़ार।।
सुधि से मैं करने लगा, मन-गुन की कुछ बात।
बूँद-बूँद दुख यूँ रिसा, ज्यों बेबस बरसात।।
जीवन हर पल जीत है, जीवन है विश्वास।
गिरकर भी सौ बार ज्यों, फिर चढऩे की प्यास।
दे न सका री जि़न्दगी, तुझे प्यार-सम्मान।
निपट कलेशों में कटे, अथ-इति के सोपान।।
नामुमकिन कुछ भी नही, बाँध चले जो काल।
वामन ने नापे यहाँ, नभ, धरती, पाताल।।
मिलकर चले कि उठ गया, गोवर्धन का भार।
घनन-घनन कर इन्द्र का, गया अहं सौ बार।।
गहरा पर शाश्वत नहीं, यह वैरी अँधियार।
मन का सूरज तो उठा, चलो क्षितिज के पार।।
जब से दो दो हाथ कर, लिखा नियति का भाल।
आपद् लौटी द्वार से, दुर्दिन हुए सुकाल।।
माँ अभाव में, भाव में, बनकर रही अनूप।
आँगन भर छाई रही, ज्यों अगहन की धूप।।
घोर कुहासा विनद् में, माँ ज्यो उजली भोर।
सोचेगा सौ बार दुख, आने पर इस ओर।।
माँ तो आशीर्वाद की, बहती निर्मल गंग।
सगर सुतों सा तारती, भर ममता के रंग।।
बेशक बैठ बज़ार में, निरखो उजली धूप।
माँ जैसी ममता कहाँ, माँ जैसा प्रतिरूप।।
क्षण कहते उसके सिवा, किसने थामा हाथ।
अपने भी दुख में गए, छोड़-छोडक़र साथ।।
तोड़ श्रंखला, युग बदल, नभ तक नहीं पड़ाव।
घर-घर यूँ जलता रहे, सूरजमुखी अलाव।।
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