सत्यवान वर्मा ‘सौरभ’ के दोहे
मन रहता व्याकुल सदा, पाने माँ का प्यार।लिखी मात की पातियाँ, बाँचू बार हजार।।
बना दिखावा प्यार अब, लेती हवस उफान।
राधा के तन पर लगा, अब मोहन का ध्यान।।
बदल रहे हर रोज ही, अब मौसम के रूप।
ठेठ सर्द में पड़ रही, गर्मी जैसे धूप।।
फीके-फीके हो गए, जंगल के सब खेल।
हरियाली को रौंदती, गुजरी जब से रेल।।
सूना-सूना लग रहा, बिन पेड़ों के गाँव।
पंछी उड़े प्रदेश को, बाँधे अपने पाँव।।
चली बेचने आबरू, होकर नंगी नार।
सरेआम अब हो रहा, जिस्मों का व्यापार।।
बढ़ती हवस शरीर की, खूब दिखाए रंग।
नंगे होकर नाचते, लडक़े-लडक़ी संग।।
आये दिन ही टूटती, अब रिश्तों की डोर।
बेटी, औरत बाप की, कैसा कलियुग घोर।।
भैया खूब अजीब है, रिश्तों का संसार।
अपने ही लटका रहे, गर्दन पर तलवार।।
खून-खराबा हो रहा, बिखरी-बिखरी प्रीत।
गायें कैसे आज हम, सद्भावों के गीत।।
ज़ीरो ले अफसर हुए, काटे मैरिट घास।
डिग्री पैसों में बिके, ज्ञान हुआ बकवास।।
कैसी ये सरकार है, कैसा है कानून।
करता नित ही झूठ है, सच्चाई का खून।।
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