डॉ. मृदुल शर्मा के दोहे
ख़त्म न रावण का हुआ, किंचित भी संत्रास।काट रहे अब भी मृदुल, रामचन्द्र वनवास।।
रीछ-वानरों के हुए, सब प्रयास बेकार।
सत्ता पर है आज भी, रावण का अधिकार।।
सेंध लगाते हैं जहाँ, देखो चौकीदार।
चोर कहें किसको मृदुल, किसको साहूकार।।
काले हों या श्वेत हों, दोनों रंग के कोट।
बिना हिचक के कर रहे, मानवता पर चोट।।
अद्भुत शिक्षा क्षेत्र में, आया है औदार्य।
टकराते हैं जाम अब, अर्जुन-द्रोणाचार्य।।
वृद्धाश्रम में देख कर, उमड़ी भारी भीड़।
हरिया सोचे, साथ दे, देखो कब तक नीड़।।
सिर धुनती है लोमड़ी, गिरगिट हुआ उदास।
देख आदमी, डिग गया, अपने पर विश्वास।।
बूढ़ी आँखों में बसा, भय, शंका, अवसाद।
झूठ हुए रिश्ते मृदुल, रूठ गया संवाद।।
रीछ-वानरों के हुए, सब प्रयास बेकार।
सत्ता पर है आज भी, रावण का अधिकार।।
सुख-सुविधा है चाटती, चाटुकार के पाँव।
अर्जुन के गाण्डीव पर, भारी शकुनी-दाँव।।
छत्र झूठ के सिर सजा, सच की गले न दाल।
सेवक बनकर स्वार्थ है, मृदुल खींचता खाल।।
जब से अपने देश में, पछुआ बही बयार।
शील हुआ घायल मृदुल, नैतिकता बीमार।।
रावण का पुतला खड़ा, मृदुल रहा ललकार।
साहस-पौरुष है अगर, कर असली पर वार।।
चोर सराहे चाँदनी, संत सराहे रार।
फिर भी यह सम्भव नहीं, मानुष करें न प्यार।।
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