आशा खत्री ‘लता’ के दोहे
चुभते थे पहले महज, पग में पथ के शूल।मिलते टुकड़े काँच के, आज ओढक़र धूल।।
भरे पेट भी फिर रहा, जैसे भूखा गिद्ध।
डूब गले तक काम में, कहे स्वयं को सिद्ध।।
पथ के काँटों की चुभन, हर लेता है प्यार।
फूलों सा अहसास है, पत्थर सा आधार।।
मनुआ हुआ फकीर सा, जगत हुआ बाजार।
सच्चा मन कब कर सका, अपनों से व्यापार।।
रिश्तों से अच्छे लगे, सोना चाँदी नोट।।
अन्तर मन के प्रेम पर, हुई करारी चोट।।
सच्चाई की नाव है, ले जाएगी पार।
यही सोच तूफान से, लड़ बैठी हर बार।।
कहें कमाई घूस को, और दिखाएँ शान।
चोर उच्चके पा रहे, दुनिया में सम्मान।।
घोल घोल कर पी गए, सबका दर्द सुजान।
तब जाकर कविता बनी, कहलाये विद्वान।।
सिक्कों की झंकार में, सुनता है संगीत।
माया में डूबा हुआ, मन कब किसका मीत।।
मैं मीठा पकवान हूँ, देवों का उपहार।
क्यों तू मुझमें ढूँढता, मटन मसालेदार।।
घी का कड़छा आप हैं, हम हैं फीका भात।
बूरा हो गर प्यार की, बन जाएगी बात।।
होना था निष्ठुर अगर, क्यों बाँधी थी डोर?
यही सोचती जा रही, सीता वन की ओर।।
कहकर तीन तलाक वे, छीनें सब अधिकार।
किस्मत उनकी देखिये, बीवी रखते चार।।
ले जाती है याद की, डोर पुराने घाट।
आँसू, आहें देखते, जहाँ वफ़ा की बाट।।
तेरे दर पर मैं गयी, उम्मीदों के साथ।
तू इतना कंगाल था, लौटी खाली हाथ।।
मुक्त किया है जाल से, बाँध गले में डोर।
जब जब भी उडऩे लगूं, खींचें अपनी ओर।।
गीली-गीली आँख हैं, भीगा-भीगा चीर।
हँसने क्यों देती नहीं, नारी को तकदीर।।
सीता सी शुचिता करे, जिनके दिल मे वास।
मिलता सदा समाज में, उनको रुतबा खास।।
दूर निराशा हो गयी, मिटती गयी थकान।
अपने घर में जब मिली, खिली खिली मुस्कान।।
बिना वफा सजता नहीं, कभी जगत में प्यार।
होता कब सोना खरा, पीतल पानीदार।।
जाने कैसी है कसक, कैसा है उन्माद।
पीछे जो भी छूटता, आया वो ही याद।।
पाँवों से उठकर चली, धूल शीश की ओर।
उसी धूल में था छिपा, संकल्पों का छोर।।
जहाँ देखिये है खड़ा, निर्लज सीना तान।
फिर हम कैसे मान लें, हार गया अभिमान।।
कर्मों से ही हो सदा, मानव की पहचान।
अपयश का भागी बना, रावण सा विद्वान।।
जब तक सिक्कों की खनक, खींचे अपनी ओर।
कानों तक पहुँचे नहीं, तब तक मन का शोर।।
जब से मेरे गाँव में, घुसे शहर के लोग।
तब से बढ़ता ही गया, बेशर्मी का रोग।।
सधे न उनके काज तो, साध लिया है बैर।
काँटों पर ही पड़ रहे, जिधर धरूँ मैं पैर।।
करते शोषण देह का, दिल पर करते चोट।
बैठे हैं शैतान कुछ, लिए धर्म की ओट।।
माँ को छोटा ले गया, लिया बड़े ने बाप।
बेटों ने पूछा नहीं, क्या चाहते हो आप।।
झूठ बोलकर ले रहे, बेटे सिर पर पाप।
कहते खुश हैं गाँव में, अब बूढ़े माँ बाप।।
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