मुकुट सक्सेना के दोहे
अपने भीतर झाँक कर, जब-जब देखा यार।काम, क्रोध, मद, लोभ के, दुर्गुण पाये चार।।
इक में केवल आग है, दूजा ज्यों है नीर।
विधिना ने कैसे रचे, ये नदिया के तीर।।
पचरंगी ये चूनरी, कच्चे इस के रंग।
फीके ही पड़ते गए, पक्की उम्र के संग।।
रे मन तेरी व्यथा को, कूत सकेगा कौन।
सुनते-सुनते अन्तत: हर कोई अब मौन।।
पेचीदा हालात में, पेचीदा व्यवहार।
कब तक टूटेगा नहीं, संबंधों का तार।।
मैंने अपने आप से, पूछा एक सवाल।
उत्तर दे पाया नहीं, उत्तर गया वह टाल।।
जिस घर में होता नहीं, आपस में संवाद।
वह खुशहाली से भरा, रहता कब आबाद।।
जब भी निज हित में गया, रचा निरन्तर खेल।
उतरी पटरी से तभी, संबंधों की रेल।।
अपने मन का चोर ही, ठगे हमें दिन-रात।
औरों को हम दोष क्यों, देते हैं बिन बात।।
रह-रह कर करते रहे, यदि तुम ही उत्पात।
तंग आकर संतान भी, कर बैठेगी घात।।
हिन्दु पर त्रिशुल है, मुस्लिम पर तलवार।
शस्त्रों की छाया तले, मानवता लाचार।।
राजनीति रोटी बनी, राजनीति तलवार।
राजनीति की कुटिलता, हुई नीति-आधार।।
मेरी उसकी मित्रता, नहीं लिखित अनुबंध।
फिर भी अपने निभ रहे, अंतरंग संबंध।।
कभी न मंदिर मैं गया, जपा न प्रभु का नाम।
फिर भी आकर बस गए, मेरे घट में राम।।
हँसतेे-हँसते रो पड़ी, वह जाने थी कौन।
कितनी मुखरित हो उठी, उसकी पीड़ा मौन।।
निर्धन से धनवान बन, ऐंठ रहा क्यों मूँछ?
अपने अंत:करण से, सच क्या है यह पूछ।।
वैमनस्य की बीच से, हटे तभी दीवार।
या दोनों की जीत हो, या दोनों की हार।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें