आचार्य राकेश बाबू ‘ताबिश’ के दोहे
मन सन्तोषे सकल विधि, होवे दृढ़ विश्वास।
सत्य उसी को मानिये, अपर गहें पर त्रास।।सज्जन उनको जानिये, जिनके हृदय उदार।
राग-द्वेष आस्रव नहीं, प्राणिजगत से प्यार।।
तन के दुर्गुण जब तलक, तन से होंय न दूर।
निज कल्याण न जानिये, यतन किये भरपूर।।
छापा तिलक लगाय के, कण्ठी गल में डाल।
पत्थर को पूजत फिरे, अंहकार उर पाल।।
अशुभ कर्म को त्याग कर, शुभ कर्मों को धार।
शुभ कर्मों से ही सदा, पाता नर उद्दार।।
माँज-माँज तन को किया, उज्ज्वल रजत समान।
एक बार माँजा न मन, कालिख भरा मकान।।
पात-पात सींचत फिरा, जप, तप अरु पाषाण।
मूल न सींचा अंत हो, तरु सूखे अति त्राण।।
अति धोखों से जग भरा, झूठे जग बहु लोग।
अपना हितकर कौन है, करि पहचान प्रयोग।।
अपने हित अरु अहित को, पशु-पक्षी लें जान।
किन्तु न तू पहचानता, कैसा बुद्धि प्रधान।।
हित किसमें अपना समझ, सोई विधि अपनाय।
क्यों सोचे समझे बिना, धूल रहा जग खाय।।
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