प. गिरीमोहन गुरु नगरश्री के दोहे
पीड़ा होती जा रही, द्रुपद सुता का चीर।चुभते दंश अभाव के, ज्यों अर्जुन के तीर।।
असत शिखण्डी की विजय, सत्य भीष्म की हार।
हार पहन कर घूमते, छल, प्रपंच सरदार।।
त्याग और बलिदान अब, शब्द कोश में बंद।
खुश खुशामदी दिख रहे, सब के सब स्वच्छंद।।
प्रजातंत्र के नाम पर, हावी हैं सामन्त।
पथरीला है संत पथ, चौड़ी बाट बसन्त।।
सत्य-न्याय पथ के पथिक, सभी हुए विकलांग।
सजे हुए चमचे सभी, चमक रहे सर्वांग।।
पटवारी हो गाँव का, या तहसीली क्लर्क।
दोनों जुड़वा भ्रात हैं, करना मुश्किल फर्क।।
पंखे जैसी घूमती, रग-रग में तकलीफ।
सबसे ज्यादा वह दुखी, जो है व्यक्ति शरीफ।।
जब से मौसम ने किए, सूरज से दृग चार।
बहका-बहका हो गया, बादल का व्यवहार।।
केवल फूलों के लिए, फाँसी के फरमान।
खुल्लम-खुल्ला घूमते, कांटे लिए निशान।।
आँखें दी तो किसलिए, छीना गया प्रकाश।
मेरे हिस्से में रहा, एक शून्य आकाश।।
वसुधा सुधा विहीन है, रस विहीन आकाश।
मानवता कहते जिसे, नहीं मनुज के पास।।
उगने वाले सूर्य से, मिला यही संदेश।
चमक-दमक मिलती नहीं, पाये बिना कलेश।।
माटी में काया मिली, घुला हवा में नाम।
याद रहेगा जगत को, किया हुआ सत्काम।।
गाल बजाते घूमते, सारे श्वान श्रृगाल।
साथ भेडि़ए दे रहे, ओढ़ बाघ की खाल।।
जिसके सिर पर रोशनी, जले उसी के हाथ।
इसीलिए तम चल रहा, करके ऊँचा माथ।।
जीवन को जब से मिल, जलसे और जुलूस।
तब से जीवन रस नहीं, हो पाता महसूस।।
प्रजातंत्र ने स्वप्र में, दिया मुझे नवमंत्र।
प्रथम कुर्सियों को पकड़, फिर नित घूम स्वतंत्र।।
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