बिहारी लाल के दोहे
नहिं पराग नहिं मधुर मधु, नहिं विकास इहि काल|
अलि कलि ही सौं बंध्यो, आगे कौन हवाल||
मोहन मूरति स्याम की, अति अद्भुत गति जोइ|
वसतु सु चित-अंतर, तऊ प्रतिबिम्बितु जग होइ||
कनक कनक ते सौ गुनी, मादकता अधिकाय|
उहिं खायैं बौराई है, इहिं पायैं बौराय||
या अनुरागी चित की, गति समुझै नहिं कोय|
ज्यौं ज्यौं बूडै स्याम रंग, त्यों त्यों उज्जलु होय||
जप-माला छापे तिलक, सरे न एकौ कामु|
मन कांचै नाचें वृथा, सांचे रांचे रामु||
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