विज्ञान व्रत के दोहे
मुझको तो देखा नहीं, देखा सिर्फ लिबास।वो अपने अंदाज़ में, उड़ा रहा उपहास।।
मैं खुद को समझा नहीं, ये कैसा दुर्योग।
मैं क्या हूँ अक्सर मुझे, बतलाते हैं लोग।।
अब तो मुझमें आ बसे, ऐसे भी कुछ लोग।
जो औरों के साथ हैं, खुद से जिएँ वियोग।।
काश उसे समझा सकूँ, मैं भी अपनी बात।
जो मुझको समझा रहा, मेरी क्या औकात।।
मेरे मन की बात को, लिखते रंग अनंत।
मौसम मुझ-सा हो गया, कहते लोग वसंत।।
मैं खुद से मिलता नहीं, मुझसे मिलते लोग।
औरों से मिलता रहूूँ, खुद से रहे वियोग।।
मुझको मुझ-सा देखकर, लोग कहें मगरूर।
औरों जैसा जब दिखूँ, कहते लोग हुज़ूर।।
उनकी शर्तों पर मुझे, जीना नामंजूर।
अपनी शर्तों पर जिऊँ, अपना रहूँ हुज़ूर।।
बिलकुल बेपहचान हूँ, मुझको यही मलाल।
मेरा चेहरा कर लिया, किसने इस्तेमाल।।
मेरी दुनिया में लगी, दुनिया भर की आग।
लेकिन इसको छोडक़र, कैसे जाऊँ भाग।।
एक जिन्दगी जिन्दगी, एक जिन्दगी मौत।
दोनों मेरी ब्याहता, इक-दूजे की सौत।।
बंधक सारे सुख हुए, जाने किसके पास।
मेरे हिस्से में रहा, रहना सिर्फ उदास।।
हकीकतें तो आज तक, उनकी रही जनाब।
हमको ये संतोष है, अपने हैं कुछ ख्वाब।।
हम ऐसे ही ठीक हैं, जैसे भी हैं आज।
हमें काम से काम है, नहीं चाहिए ताज।।
यूँ सूरज के सामने, जुगनू कौन बिसात।
जुगनू ही जुगनू दिखें, लेकिन सारी रात।।
अपना राग अलाप कर, कौआ रहे स्वतंत्र।
सुग्गा जिसके पींजरे, पढ़ता उसके मंत्र।।
चँवर डुलाते थक गए, जब चेलों के हाथ।
सोचा आश्रम से कहीं, बेहतर है फुटपाथ।।
अर्थशास्त्र की हम सदा, पढ़ते रहे किताब।
नफे और नुकसान का, रक्खा नहीं हिसाब।।
दौलत ही दौलत भरी, रखता कहाँ जमीर।
यानी मुफलिस हो गया, सबसे बड़ा अमीर।।
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