स्नेहलता ‘नीर’ के दोहे
आसमान से गिर रहे, रत्न असंख्य अनूप।भोर तृणों की नोक पर, चमके पाकर धूप।।
यहीं बनी हैं जातियाँ, यहीं बने सब धर्म।
भूलो मत इंसानियत, करो सदा सत्कर्म।।
जो करते सत्कर्म हैं, पाते वे सम्मान।
दुख-सुख, विपदा-सम्पदा, जीवन के सोपान।।
सर्दी, गर्मी, धूप हो, या हो फिर बरसात।
हर मुश्$िकल से जूझते, सैनिक तो दिन रात।।
सूरज सबको बाँटता, सदा बराबर धूप।
चाहे कोई रंक हो, या हो कोई भूप।।
सर्दी, गर्मी, धूप में, करे खेत पर काम।
मिलता नहीं किसान को, जीवन में आराम।।
मंजिल चाहे दूर है, विकट पंथ अनजान।
मिल जाती है एक दिन, मन में लो यदि ठान।।
पवन, अगन धरणी, गगन, बहता वर्षा नीर।
सबके लिए समान हैं, राजा, रंक, $फकीर।।
सावन मनभावन नहीं, घन बरसें दिन रैन।
रोज़ी रोटी के लिए, श्रमिक हुआ बेचैन।।
दूब, लता-तरु पात से, नियति करे श्रृंगार।
दुल्हन सी वसुधा लगे, थकूँ न रूप निहार।।
हरी नीम की डाल पर, झूल रहीं हैं नार।
रिझा रही भरतार को, गा कर गीत मल्हार।।
मंदिर, मस्जिद बन रहे, कहीं बन रहे चर्च।
जाति, धर्म में उलझकर, जीवन करते खर्च।।
विपदा जब आये घनी, करे जगत उपहास।
कभी न हिम्मत हारना, रखना दिल में आस।।
धुआँ-धुआँ है जिंदगी, बसी हृदय में पीर।
पग-पग पर दुख हैं बहुत, बहे नैन से नीर।।
सौंधी माटी देश की, देश हमारा मान।
इसकी रक्षा के लिए, सब कुछ है क़ुर्बान।।
रिश्ते मौसम से हुए, पल में बदले रंग।
इक पल प्रेम अगाध है, दूजे होती जंग।।
विषय-वासना में फँसा, करे अधर्मी काज।
नेक काम करता नहीं, कुंठित हुआ समाज।।
बेटी-बेटा एक से, नहीं समझते राज।
बेटी मारें कोख में, कातिल हुआ समाज।।
काली सब करतूत हैं, पहनें उजला वेश।
जाल चाल का नित बुनें, ऐसा है परिवेश।।
दामन थाम स्वारथ का, करें अधर्मी काम।
शातिर लोगों ने किया, भारत को बदनाम।।
अंधी श्रद्धा से सदा, छला गया संसार।
छलिया देखो संत बन, चला रहे व्यापार।।
तन माटी की है डली, उम्र पड़े जल धार।
माटी-माटी में मिले, जीवन का ये सार।।
नदिया सूखी प्रेम की, बसी हृदय में पीर।
मुफ़्त जख़़्म मिलते यहाँ, नयनों बहता नीर।।
जो रस्ते की धूल को, समझे यहाँ गुलाल।
जीवन को जाने वही, तू क्यों करे मलाल।।
पत्थर दिल संसार है, करें घात पर घात।
चोट लगे दिल पर यहाँ, दृग छलकें दिन-रात।।
धन से सब बलवान हैं, धन से सब विद्वान।
रिश्ते-नाते अर्थ बिन, सूखे पात समान।।
वचन भरोसा अज़्म, दिल, रिश्ते कभी न तोड़।
जो टूटें इक बार तो, नहीं सकेगा जोड़।।
बेटों ने जब खींच दी, आँगन में दीवार।
मात-पिता का हो गया, तार-रात संसार।।
फँसी मीन जब जाल में, मुदित हुआ इंसान।
तड़प रही असहाय है, आफ़त में है जान।।
नहीं भेद कोई किया, सृष्टि रची करतार।
इंसानो ने की खड़ी, मज़हब की दीवार।।
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