सत्यशील राम त्रिपाठी के दोहे
पता पूछते रह गये, पगडंडी से रोड।
मंज़िल वाली डाक का, बदल गया पिन कोड।।
रक्खा हो तेज़ाब ज्यों, खाद्यान्नों के बीच।
एक उदासी तैरती, मुस्कानों के बीच।।
आदमखोरों ने गढ़े, कुछ ऐसे क़ानून।
ज़िन्दा थी तो ऊन था, मरी भेड़ तो ख़ून।
ले पनाह मुझसे हुआ, मेरा जहाँपनाह।
अब मुझ पर ही कर रहा, शासन बनकर शाह।।
कोल्हू में सपने पिसे, मिला अश्रु का तेल।
उसी अश्रु से कर रहे, बड़े लोग धुरखेल।।
करना पड़ता है हमें, दिनभर जोड़-घटाव।
तब जाकर कुछ रेंगती, घर की जर्जर नाव।।
कैसे चढ़ पायें भला, हम सपनों के सेतु।
एक तरफ़ है राहु तो, एक तरफ़ है केतु।
यही देख रावण सभी, पीट रहे हैं माथ।
एक जटायु है खड़ा, हर सीता के साथ।।
तोड़ रहे थे जो कभी, वही लगाते पेंट।
जब से आपस में जुड़े, बालू और सीमेंट।।
आँख खुली तो हो गये, सपने सभी अनाथ।
समय-सिपाही था खड़ा, हथकड़ियों के साथ।।
धागा, बाती, तेल औ', माचिस, लकड़ी, मोम।
एक उजाले के लिये, कई ज़िन्दगी होम।।
जब भी सावन ने दिया, सूनेपन का घाव।
याद हमें आयी बहुत, काग़ज़ वाली नाव।।
ग़लती पर है डाँटता, बजा बजाकर तूर्य।
अँधियारे की कापियाँ, जाँच रहा है सूर्य।।
गुड़िया, गुल्लक, गोटियाँ, गजरा, गाँव, गुरूर।
एक लुटेरा ले गया, देकर बस सिन्दूर।।
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