शिवानन्द सिंह 'सहयोगी' के दोहे
काबिज है भूमाफिया, परती जहाँ जमीन|
लोकतंत्र है देखता, सपना एक हसीन||
कहाँ ‘किला’ की धाक है, कहाँ शौर्य की प्यास|
आबादी ने ढँक लिये, पुरखों के इतिहास||
भाव जगत को दे रही, एक नया अवतार|
गीत और नवगीत की, पतली सी दीवार||
बेच रही सम्मान अब, नुक्कड़ खुली दुकान|
जहाँ कभी साहित्य का, होता नहीं विहान||
राजनीति को दे रहा, सत्ता-शक्ति समाज|
क्या जनपथ है सुन रहा? जनता की आवाज||
‘कविता’ के घर में नहीं, टिक सकता ‘अवसाद’|
‘यादों के पंछी’ अगर, करते हों ‘संवाद’||
धन-दौलत राजी-खुशी, हाथी बँगला कार|
बिना उचित सम्मान के, सब कुछ है बेकार||
जाकर बसा विदेश में, संतोषक संलाप|
बैठा बिरहा गा रहा, घर में बूढ़ा बाप||
कहिये कलियुग! आ गया, अब कैसा यह दौर|
‘माल दिखाया और कुछ, बेच दिया कुछ और||
नदियों ने फैला दिये, ऐसे अपने पाट|
लोकतंत्र के गाँव की, खड़ी हो गई खाट||
पता नहीं क्या हो गया, समझ गई चर घास|
जो अपने कल खास थे, नहीं फटकते पास||
अँधियारों की घात से, बनी न होगी बात|
झँझरा घूँघट काढ़कर, निकली होगी रात||
मन में यह अफसोस है, और पड़ी है हूक|
अंदर भरी बुराइयाँ, अभी न पाया थूक||
लापरवाही से मरा, घायल एक मरीज|
हंगामा है सड़क पर, पीछे खड़ी तमीज||
धनादेश करता रहा, लौटी नहीं रसीद|
पुरस्कार की दौड़ में, शामिल रही खरीद||
लेखन के दरबार में, पहुँचे कई दलाल|
आयोजक के मंच पर, कविता हुई हलाल||
ढूँढ़ न पाई सर्जना, भावों का अमरत्व|
कविता का है घट रहा, अपने आप महत्व||
गोट चुनावी बिछ चुकी, फैला मायाजाल|
मंडी मालामाल है, खेत पड़े कंगाल||
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