कुमार रवीन्द्र के दोहे
सरयू के तट पर खड़े, लव-कुश चिंतित मौन|
बुझा दीप रघुवंश का, उसे जलावे कौन||
आँखों में जो जोत थी, वह भी हुई उदास|
साँसों की भी क्या कहें, बदल गई बू-बॉस||
हवा-रोशनी के लिए, तरस गए हम यार|
ऊँची ही होती गई, चाँदी की दीवार||
हमें मिला इतिहास कल, पहने टूटा ताज़।
देख तमाशा वक्त का, आई उसको लाज।।
बाजीगर हैं अब कई, सबके अपने खेल।
रजधानी में है मची, उनकी रेलमपेल।।
महानगर में कल मिली, हमको कविता मौन।
उसकी आँखों में पढ़े, प्रश्न धूप के कौन।।
देख गाँव की दुर्दशा, गुमसुम है इतिहास।
ढाई आखर की कहीं, रही नहीं बू-बास।।
कलजुग आया घोर है, शाह होगये चोर।
रोज़ उपद्रव हो रहे, बस्ती में घनघोर।।
कभी रही इस देश में, थी रघुवंशी आन।
छल-प्रपंच ही रह गये, अब इसकी पहचान।।
पोथी में पढ़ जग मुआ, रामराज की बात।
व्यापा पूरे देश में, असुरों का उत्पात।।
फूलों का है जन्मदिन, ठूँठ खड़ा है पेड़।
हवा वसंती बावरी, उसे रही है छेड़।।
साँसों में है राख की, गंध बसी दिन-रात।
ऐसे में मधुमास की, कैसे होवे बात।।
वक्त बुरा है, क्या करें, अपने भी हैं गैर।
सारी दुनिया से भला, कैसे साधें वैर।।
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