गरिमा सक्सेना के दोहे
छः गज़ लम्बी साड़ियाँ, चुनरी बुरका सूट|
बचा कहाँ पाये मगर, कोमल तन की लूट||
दादी रोयी याद कर, तब अपना बर्ताव|
पोती ने मरहम दिया, जब पोते ने घाव||
मुखरित हुए सवाल फिर, बोल रहे हैं जाग।
चाह रहे हो आज क्यों, तुम कुहरे से आग।।
बहरे होने की कला, सदी रही है सीख।
अब उसको सुननी कहाँ, पंखुड़ियों की चीख।।
कहा खिड़कियों को बुरा, दिया सफ़ल व्याख्यान।
जो ख़ुद अपनों के लिए, हैं बस रोशनदान।।
मोमबत्तियाँ रो रहीं, बनती रहीं क़तार।
मगर थमा कब देश में, वहशी कारोबार।।
देगी कैसे सभ्यता, नैतिकता का इत्र।
जब भविष्य की सोच में, जमा नग्न चलचित्र।।
चाहे कुहरे ने किये, लाखों कठिन सवाल।
पर सूरज के हाथ में, जलती रही मशाल।।
सिर्फ़ दिखावे तक रहा, अब क़ानूनी जोग।
हाथों की बातें नहीं, चाबुक पर अभियोग।।
तितली-सी उन्मुक्त है, बेटी की परवाज़।
मगर कहाँ वह जानती, उपवन के सब राज़।।
धूप उजाला माँगती, जा दीपक के पास।
'गरिमा' कितना क्षीण अब, हुआ आत्मविश्वास।।
रही फटकती उम्र भर, उम्मीदों के सूप।
नारी को पर कब मिली, कतरा भर भी धूप।।
सद्भावों की लाश पर, रोज़ ठोंकतीं कील।
अब कपोत के भेष में, मँडराती हैं चील।।
सभी तितलियों ने स्वयं, नोची अपनी पाँख।
जब से ज़हरीली हुई, उपवन में हर आँख।।
सिन्दूरी धरती हुई, गयी ताप को भूल।
कड़ी धूप में जब झरे, गुलमोहर के फूल।।
हलवा कोने में पड़ा, फीकी पड़ी दुकान।
गोबर महँगा बिक गया, ऊँचा था गुणगान।।
माँसाहारी जीव का, सिर्फ़ शुद्ध है ख़ून।
लिखा शेर ने इस तरह, जंगल का क़ानून ।।
फूल उजाड़े जा रहे, कैक्टस है ख़ुशहाल।
उपवन जैसे देश में, इसका नहीं मलाल।।
जीवन को पहले किया, ज़ख़्मों में तब्दील।
फिर दुनिया ने सौंप दी, हमें नमक की झील।।
आँगन में काँटे बिछे, राहों में बारूद।
चिथड़ा-चिथड़ा मन हुआ, घायल हुआ वज़ूद।।
जंगल करता रात में, शावक का आखेट।
आश्वासन की पट्टियाँ, दिन में रहा लपेट।।
राजनीति ने सीख ली, अब यह कैसी चाल।
हर मछली के प्रश्न का, उत्तर है घड़ियाल।।
रातरानियों को मिला, आँगन का अधिकार।
तुलसी विस्थापित हुई, खोज रही है प्यार।।
स्वेद-अश्रुओं से भरा, जनता ने जो ताल।
राजा जी उस ताल में, रहे मछलियाँ पाल।।
बहरे होने की कला, सदी रही है सीख।
अब उसको सुननी कहाँ, पंखुड़ियों की चीख।।
कहा खिड़कियों को बुरा, दिया सफ़ल व्याख्यान।
जो ख़ुद अपनों के लिए, हैं बस रोशनदान।।
मोमबत्तियाँ रो रहीं, बनती रहीं क़तार।
मगर थमा कब देश में, वहशी कारोबार।।
देगी कैसे सभ्यता, नैतिकता का इत्र।
जब भविष्य की सोच में, जमा नग्न चलचित्र।।
चाहे कुहरे ने किये, लाखों कठिन सवाल।
पर सूरज के हाथ में, जलती रही मशाल।।
सिर्फ़ दिखावे तक रहा, अब क़ानूनी जोग।
हाथों की बातें नहीं, चाबुक पर अभियोग।।
तितली-सी उन्मुक्त है, बेटी की परवाज़।
मगर कहाँ वह जानती, उपवन के सब राज़।।
धूप उजाला माँगती, जा दीपक के पास।
'गरिमा' कितना क्षीण अब, हुआ आत्मविश्वास।।
रही फटकती उम्र भर, उम्मीदों के सूप।
नारी को पर कब मिली, कतरा भर भी धूप।।
सद्भावों की लाश पर, रोज़ ठोंकतीं कील।
अब कपोत के भेष में, मँडराती हैं चील।।
सभी तितलियों ने स्वयं, नोची अपनी पाँख।
जब से ज़हरीली हुई, उपवन में हर आँख।।
सिन्दूरी धरती हुई, गयी ताप को भूल।
कड़ी धूप में जब झरे, गुलमोहर के फूल।।
हलवा कोने में पड़ा, फीकी पड़ी दुकान।
गोबर महँगा बिक गया, ऊँचा था गुणगान।।
माँसाहारी जीव का, सिर्फ़ शुद्ध है ख़ून।
लिखा शेर ने इस तरह, जंगल का क़ानून ।।
फूल उजाड़े जा रहे, कैक्टस है ख़ुशहाल।
उपवन जैसे देश में, इसका नहीं मलाल।।
जीवन को पहले किया, ज़ख़्मों में तब्दील।
फिर दुनिया ने सौंप दी, हमें नमक की झील।।
आँगन में काँटे बिछे, राहों में बारूद।
चिथड़ा-चिथड़ा मन हुआ, घायल हुआ वज़ूद।।
जंगल करता रात में, शावक का आखेट।
आश्वासन की पट्टियाँ, दिन में रहा लपेट।।
राजनीति ने सीख ली, अब यह कैसी चाल।
हर मछली के प्रश्न का, उत्तर है घड़ियाल।।
रातरानियों को मिला, आँगन का अधिकार।
तुलसी विस्थापित हुई, खोज रही है प्यार।।
स्वेद-अश्रुओं से भरा, जनता ने जो ताल।
राजा जी उस ताल में, रहे मछलियाँ पाल।।
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