केशव शरण के दोहे
कमतर कैसे मर्द से, यह औरत की जात।मौका देकर देखिये, दोनों की औकात।।
तितली लिपटी फूल से, तरुवर छायी बेल।
सबका फागुन आ गया, कब हम दो का मेल।
कोख भरी इस बात पर, ले आशंका घेर।
भू्रण परीक्षण में यहाँ, तनिक न लगती देर।।
बौर लगे कम आम में, इक तो इसकी हूक।
दर्द दोगुना कर गयी, रहकर कोयल मूक।।
जैसे-जैसे हैं घटे, मेरे अपने यार।
तैसे-तैसे है बढ़ा, दुश्मन का दरबार।।
झेली हमने दर्द की, कैसी दुहरी मार।
वहाँ-वहाँ नश्तर लगे, जहाँ-जहाँ तलवार।।
जाने कैसी बात है, मुझमें ऐसी खास।
पल दो पल मैं खुश रहूँ, पहरों रहूँ उदास।।
चुभते रहते हैं हमें, दुनिया-भर के शूल।
मिल जाते हैं आप तो, खिल जाते हैं फूल।।
सुनता यह संसार है, बस रोने की बीन।
भावों का वैभव लिए, कवि कौड़ा का तीन।।
कर पायेंगी कब तलक, कुमुदनियाँ ये मौज।
पोखर को है घेरती, जलखुम्भी की $फौज।।
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