अवनीश त्रिपाठी के दोहे
अग्निकथाएँ बाँचते, जेठ और आषाढ़।।
अनुबंधित हर बिम्ब के, थके हुए प्रतिमान।
दर्पण के अवसाद की, बस इतनी पहचान।।
आशाओं के घन घिरे, पूरी हुई तलाश।
आँखों में उगने लगे, फिर से सुर्ख़ पलाश।।
उपवन की अमराइयाँ, तर महुए की छाँव।
बरबस तुमको खोजने, चल पड़ते हैं पाँव।।
किसको कह दें नाथ हम, किसको कहें अनाथ।
हाँफ रहा है इन दिनों, जीवन का फुटपाथ।।
कौवे सब एकत्र हैं, बातें उलजलूल।
कोयल! यह परिवेश अब, रहा नहीं माकूल।।
धुँधलाये हर मार्ग में, सूने हैं अहसास।
जीवनभर ज़िन्दा रही, अवसादों में प्यास।।
नये घरौंदे में बहुत, हुआ हास-परिहास।
कोटर का अनुबंध अब, है केवल इतिहास।।
पेन्सिल, काग़ज़, कूँचियाँ, दुहरा लिये चरित्र।
गढ़ने में मशगूल हैं, साम-दाम के चित्र।।
बूढ़ी आँखों में नहीं, सन्दर्भों का स्वर्ग।
अम्मा के हर शब्द में, साँसों का उपसर्ग।।
बूढ़े बरगद की जड़ें, भूख-प्यास से त्रस्त।
शाखा-गूलर-पत्तियाँ, सब अपने में मस्त।।
भरी भीड़ में चीखते, लँगड़े हुए सवाल।
संवेदन की देह में, घुस आया बेताल।।
भाषा मरुथल-सी हुई, शब्द हो गये नाग।
बिन तीली के जल रही, हर समाज में आग।।
भाषाओं की गोंद है, जिन लोगों के पास।
त्रिज्याओं को खींचकर, बना रहे वे व्यास।।
मुँह लटकाये ऊँघता, इच्छा का जलपोत।
भूखे-प्यासे ताकते, मन के सभी कपोत।।
रहे सुलगते प्रश्न कुछ, कर उत्तर को क़ैद।
तनिक नहीं चिन्तित समय, हुआ नहीं मुस्तैद।।
राजनीति की दुर्दशा, हुई बहुत घनघोर।
अफ़वाहों के पोस्टर, चिपके चारों ओर।।
लगे सुलगने प्रश्न फिर, उत्तर को दे मात।
कालिख जब करने लगी, दामन से भी बात।।
शंकाओं की झील में, मिले सीप कुछ शंख।
नदी खोजती फिर रही, फिर सपनों के पंख।।
सन्नाटे की पीठ पर, ये कैसे हालात।
रातें देतीं आजकल, चीख भरी सौगात।।
अन्तःपुर में बैठकर, भोजन करे सियार।
राजधर्म का हो गया, यह कैसा विस्तार।।
साँकल, कुण्डी, चिटकिनी, दरवाज़े, दीवार।
सन्नाटों की गूँज के, अलग-अलग आकार।।
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