छाया शुक्ला के दोहे
जिसने ली बस बद्दुआ और उठाई आह।पतझड़ जैसे वो झरा, होता गया तबाह।।
2
रिश्तों के हर छंद का, बहुत कठिन भावार्थ।
केशव को आना पड़ा, समझ सके तब पार्थ।।
3
नदी नाव की यारियाँ, जीव जगत व्यवहार।
जो समझे बारीकियाँ, लग जाये वो पार।।
4
शब्द न्यून या हों अधिक, बसे भाव में प्राण।
कविता छोटी या बड़ी, करे जगत कल्याण।।
5
जिन खेतों में प्रेम के, उपजे सौ-सौ फूल।
वहीं किसी ने बो दिए, काँटों भरे बबूल।।
6
बेटी होना क्यों यहाँ, इतना बड़ा कसूर।
कभी गर्भ में मार दें, कभी घाव भरपूर।।
7
ओछी जिनकी हरकतें, जिनका तिक्त स्वभाव।
वो बाँटें जग को सदा, गहरे-गहरे घाव।।
8
सच्चे मन से हम सभी, बने रहें इंसान।
बच जाएगी मानिये, हल्कू की भी जान।।
9
जिन खेतों में प्रेम के, उपजे सौ-सौ फूल।
वहीं किसी ने बो दिए, काँटे और बबूल।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें