राजेश जैन ‘राही’ के दोहे
प्रीत उसी से कीजिए, जिसके भीतर भाव।आखिर खंजर से मिले, फूलों को फिर घाव।।
नफरत ने खारिज किए, प्रीत भरे प्रस्ताव।
बातों से बदले नहीं, विषधर का बर्ताव।।
खींचो तीर कमान पर, लो गीता से सीख।
नहीं वीर को शोभती, संकट में भी भीख।।
सूरज की पेशी हुई, मावस का दरबार।
अँधियारा मुस्का रहा, उजियारा लाचार।।
सूरज को भाने लगा, रातों का सत्कार।
शेरों पे पहरा लगा, हू-हू करें सियार।।
हार गए गिरगिट सभी, हारे सभी सियार।
राजनीति के पास था, रंगो का भंडार।।
संकट सीधे पे रहे, क्या तरुवर क्या लोग।
हंस करे है चाकरी, लम्पट सत्ता भोग।।
नहीं कसौटी काम की, नहीं न्याय आधार।
परिभाषित है सत्य अब, मतलब के अनुसार।।
आखिर खंजर से हुए, जख्मी देखो हाथ।
बाँटे होते फूल तो, खुश्बू रहती साथ।।
जुमलों में अटके हुए, जनता के अरमान।
संकट कभी किसान पर, आहत कभी जवान।
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