जितेन्द्र ‘जौहर’ के दोहे
मानसरोवर में मिला, कौवों को सम्मान।कोयल का इससे अधिक, क्या होगा अपमान।।
छंदमुक्त की काव्य में, जबसे चली बयार।
सौ-दो-सौ से हो गये, कविगण बीस हज़ार।।
ये कैसा जंजाल है, कैसा है दुर्योग।
कविताई को लग गया, बुद्धिवाद का रोग।।
तुच्छ लतीफे-चुटकुले, फूहड़ हास्य-फुहार।
कवि-सम्मेलन में दिखी, कचरे की भरमार।।
काव्य-मंच पर देखकर, तुच्छ हास-परिहास।
फूट-फूट रोने लगीं, आँखें तुलसीदास।।
मानस की चौपाइयाँ, जैसे माँ का प्यार।
जीवन का संबल कहो, या जीवन-आधार।।
अक्षर-अक्षर मंत्र है, शब्द-शब्द सुश्लोक।
तुलसी ने सौंपा हमें, अद्भुत ज्ञानालोक।।
मुन्नी के मुख से झरे, अमृत-वचन ललाम।
मुन्नी...! तेरा शुक्रिया, मुन्नी तुझे सलाम।।
रही तड़पती आँसुओं, में डूबी तहरीर।
दिल्ली में पकती रही, आश्वासन की खीर।।
संसद में बिकने लगा, खुलेआम ईमान।
हमने तो देखी नहीं, इतनी बड़ी दुकान।।
क्या बतलाऊँ, क्या लिखूँ, राजनीति का हाल।
कुर्सी पर काबिज हुए, गुण्डे-चोर-दलाल।।
ये कैसा कानून है, वाह...! सियासत वाह।
खेत गधे मिल खा गये, पकड़े गये जुलाह।।
देह-अजन्ता में सदा, खोजा किये प्रयाग।
अभिशापित करता रहा, विषययुक्त अनुराग।।
मन-मन्मथ मथता रहा, मंथन-घट मनहार।
मतिविहीन करता रहा, मधुकर-सम व्यवहार।।
जीवन-भर डसता रहा, चतुष्फणी सारंग।
गुरु के प्रबल प्रभाव से, गरल चढ़ा ना अंग।।
जीवन ज्योतिर्मय हुआ, तम मिट गया समूल।
अनुकूलन करने लगीं, धाराएँ प्रतिकूल।।
नाशवान संसार यह, नश्वर है यह देह।
नित्य अनश्वर आत्मा, का अस्थाई गेह।।
रात अमा की कट गयी, उदित हुआ दिनमान।
मन-विहंग गाने लगा, नव उमंगमय गान।।
धुआँ-धुआँ होने लगी, शुद्ध हवा की आस।
हमने-तुमने मित्रवर, इतना किया विकास।।
धरती से अम्बर तलक, आदम का उत्पात।
कुदरत आखिर कब तलक, झेलेगी आघात।।
आयी पॉलीथीन तो, थैले हुए खलास।
बिन थैला बाज़ार में, पहुँचे रामविलास।।
दूध, दही, हल्दी, मिरच, शक्कर, पत्ती, चाय।
सब कुछ धारे फिर रहे, थैले कोमल-काय।।
सुविधा का साधन इसे, मत समझो श्रीमान।
पॉलीथिन तो मौत का, है असली सामान।।
उर्वरता को छीनकर, बंजर करे ज़मीन।
वर्षों तक गलती नहीं, भू में पॉलीथीन।।
मिली समूचे शहर को, दंगों की सौगात।
खूँ से लथपथ दिन मिले, आँसू-भीगी रात।।
चाकू, खंजर, गोलियाँ, पत्थर सबके पास।
हरे रंग के होंठ पर, लाल-लाल-सी प्यास।।
दंगे में मारे गये, हिन्दू-मुस्लिम-सिक्ख।
केसरिया बोला-‘सखे...केवल हिन्दू लिक्ख’।।
मुल्ला बोला चीखकर-‘काफिर है ये...मार’।
उग्र भीड़ ने पेट में, खंजर दिया उतार।।
ये उनसे कुछ कम नहीं, वो इनसे इक्कीस।
हमने करके देख ली, दंगों की तफ्तीश।।
ना वो मस्जिद का हुआ, ना ये मंदिर-भक्त।
दोनों को बस चाहिए, इक-दूजे का रक्त।।
धूँ-धूँ जलती बस्तियाँ, दंगाई आज़ाद।
यह सुनकर ख़ुश हो गये, सत्ता के सय्याद।।
चप्पे-चप्पे पर पुलिस, हथियारों से लैस।
सन्नाटा लिखने लगी, पल में आँसू गैस।।
दंगों की पटु पटकथा, लिखता है क्यों-कौन।
है सबको मालूम पर, सब साधे हैं मौन।।
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