डॉ अनंतराम मिश्र ‘अनंत’ के दोहे
यहाँ आदमी का नहीं, दो कौड़ी भी मोल|
ले आई मुझको कहाँ, बोल ज़िन्दगी बोल||
उधर नगर सुख-भोग हैं, नभचुम्बी धन-धाम|
इधर झोपड़ी-भुखमरी, नग्न अभागा ग्राम||
अब बरगद के पेड़ भी, नहीं दे रहे छाँव|
हवा शहर की लग गई, बदला मेरा गाँव||
अरे वाह! इसको मिली, जिजीविषा क्या खूब|
पत्थर का भी फाड़ उर, उग आई फिर दूब||
कस्तूरी मृग की तरह, दौड़ रहे दिन-रात|
आप कभी तो कीजिये, खुद से भी कुछ बात||
विषकन्या-जैसी हवा, लिए प्रदूषण-भार।
दस्तक देने के लिए, आयी युग के द्वार।।
घायल होने से बचें, कैसे युग के पाँव।
जबकि बसे चारों तरफ, नागफनी के गाँव।।
गुलमोहर खिलते कहीं, अब न हमारे गाँव।
करती काया कष्टकित, बस बबूल की छाँव।।
दवा विफल, ईमान के, वैद्य गये सब हार।
है समाज के कण्ठ में, कैंसर भ्रष्टाचार।।
यह स्वतंत्रता प्राप्ति का, है कैसा परिणाम?
नगर प्रदूषण ग्रस्त हैं, त्रस्त भूख से ग्राम।।
पूर्वाधिक उर्वर रही, कर खेतों को खाद।
पर पहले जैसा कहाँ, रहा खाद्य में स्वाद।।
फुफकारों में लोभ की, लपट सनसनीखेज।
नव वधुओं को डस रहा, विषधर विषम दहेज।।
अपनी-अपनी गोट है, अपनी-अपनी चाल।
अपने-अपने ताल हैं, अपने-अपने जाल।।
हैं ऐसे ही अटपटे, कुछ युगीन सन्दर्भ।
तिरस्कार-लज्जाजनक, ज्यों विधवा का गर्भ।।
हृदय-हृदय में आग है, आँख-आँख में नीर।
अंग-अंग में चोट है, पोर-पोर में पीर।।
गोया दुखिया जिन्दगी, सुख गौतम निर्मोह।
खीर सुजाता की कहाँ, भूख रही है टोह?
चले सुखों के राजपथ, जब हम सुबह कि शाम।
तब-तब रुकना ही पड़ा, पाया चक्का जाम।।
मृततृष्णा के ढोल में, देख न पायी पोल।
व्यर्थ जिन्दगी ही गयी, बोल-बोलकर बोल।।
एक रंज से ही सजल, हो उठते दृग-कंज।
क्या होगा जब जिन्दगी, खेल रही शतरंज?
अजब पतीली जिन्दगी, युग-चूलह दुख-ज्वाल।
पानी खारा आँख का, गली न सुख की दाल।।
पूँजी से श्रम ने कहा, ‘मेरे माई बाप’।
चिलत गरम हम कर रहे, लें दम मारें आप।।
प्याले पर प्याले उधर, अधर न पाये सूख।
इधर निवाले के लिए, रही तरसती भूख।।
दस्तक देने के लिए, आयी युग के द्वार।।
घायल होने से बचें, कैसे युग के पाँव।
जबकि बसे चारों तरफ, नागफनी के गाँव।।
गुलमोहर खिलते कहीं, अब न हमारे गाँव।
करती काया कष्टकित, बस बबूल की छाँव।।
दवा विफल, ईमान के, वैद्य गये सब हार।
है समाज के कण्ठ में, कैंसर भ्रष्टाचार।।
यह स्वतंत्रता प्राप्ति का, है कैसा परिणाम?
नगर प्रदूषण ग्रस्त हैं, त्रस्त भूख से ग्राम।।
पूर्वाधिक उर्वर रही, कर खेतों को खाद।
पर पहले जैसा कहाँ, रहा खाद्य में स्वाद।।
फुफकारों में लोभ की, लपट सनसनीखेज।
नव वधुओं को डस रहा, विषधर विषम दहेज।।
अपनी-अपनी गोट है, अपनी-अपनी चाल।
अपने-अपने ताल हैं, अपने-अपने जाल।।
हैं ऐसे ही अटपटे, कुछ युगीन सन्दर्भ।
तिरस्कार-लज्जाजनक, ज्यों विधवा का गर्भ।।
हृदय-हृदय में आग है, आँख-आँख में नीर।
अंग-अंग में चोट है, पोर-पोर में पीर।।
गोया दुखिया जिन्दगी, सुख गौतम निर्मोह।
खीर सुजाता की कहाँ, भूख रही है टोह?
चले सुखों के राजपथ, जब हम सुबह कि शाम।
तब-तब रुकना ही पड़ा, पाया चक्का जाम।।
मृततृष्णा के ढोल में, देख न पायी पोल।
व्यर्थ जिन्दगी ही गयी, बोल-बोलकर बोल।।
एक रंज से ही सजल, हो उठते दृग-कंज।
क्या होगा जब जिन्दगी, खेल रही शतरंज?
अजब पतीली जिन्दगी, युग-चूलह दुख-ज्वाल।
पानी खारा आँख का, गली न सुख की दाल।।
पूँजी से श्रम ने कहा, ‘मेरे माई बाप’।
चिलत गरम हम कर रहे, लें दम मारें आप।।
प्याले पर प्याले उधर, अधर न पाये सूख।
इधर निवाले के लिए, रही तरसती भूख।।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें