अंसार 'कम्बरी' के दोहे
मन से जो भी भेंट दे, उसको करो $कबूल।काँटा मिले बबूल का, या गूलर का फूल।।
सागर से रखती नहीं, सीपी कोई आस।
एक स्वाति की बूँद से, बुझ जाती है प्यास।।
एक तरह रहते नहीं, जीवन के हालात।
कभी हुये हैं दिन बड़े, कभी हुई है रात।।
सूरज बोला चाँद से, कभी किया है गौर।
तेरा जलना और है, मेरा जलना और।।
जब तक अच्छा भाज्य है, ढके हुए हैं पाप।
भेद खुला हो जायेंगे, पल में नंगे आप।।
जाने किस दिन के लिये, रहा सम्पदा जोड़।
जाना है जब एक दिन, हाड़-माँस तक छोड़।।
बना दिए फनकार ने, सुन्दर-सुन्दर चित्र।
मगर किसी का चित्र-सा, दिखता नहीं चरित्र।।
दुनिया में तो आ गये, यह भी रखना याद।
एक और संसार है, इस दुनिया के बाद।।
लोग आजकल इस तरह, निभा रहे हैं साथ।
दिल से दिल मिलता नहीं, मिला रहे हैं हाथ।।
अब किसको अच्छा कहें, किस को कहें ख़राब।
हर कोई हमको मिला, पहने हुए नकाब।।
हवा ज़रा सी क्या लगी, भूल गई औकात।
पाँवों की मिट्टी करे, सर पर चढक़र बात।।
चार टके क्या मिल गये, छिपा रहे हैं टाट।
कभी न देखा बोरिया, सपने आई खाट।।
समझ न आया आजतक, हार हुई या जीत।
खेल-खेल में ‘कम्बरी’, गई जि़न्दगी बीत।।
भला कबूतर अम्न के, कहाँ करें परवाज़।
आसमान में आजकल, उड़ते केवल बाज।।
पंछी चिन्तित हो रहे, कहाँ बनायें नीड़।
जंगल में भी आ गई, नगरों वाली भीड़।।
कुर्बानी के बाद भी, दिल में रहा मलाल।
उन्हें मजा आया नहीं, बकरा हुआ हलाल।।
अभी हमारे नाम को, क्यों छापें अखबार।
नहीं किया हमने अभी, कोई भ्रष्टाचार।।
अपने दिन तो ‘कम्बरी’, इतने हैं प्रतिकूल।
सर पर भारी बोझ है, पाँव तले है शूल।।
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