सौरभ पाण्डेय के दोहे
मौसम सम होता नहीं, मौसम को पहचान।उसको मौसम राग है, इसको मौसम तान॥
चंपा चढ़ी मुँडेर पर, गद्-गद् हुआ कनेर।
झरते हरसिंगार बिन, बचपन हुआ कुबेर॥
मेरे मौसम को नहीं, हुआ तत्त्व का बोध।
षड्-दर्शन हाँका किये, बना रहा गतिरोध।।
फटी बिवाई देख कर, चिंतित दीखी राह।
मौसम-मौसम धूल में, पत्थर तोड़े ’आह’॥
मौसम पर गर्मी चढ़ी, कसतीं गाँठें-छोर।
स्वप्न-स्वेद में भीगते, मींजे नस-नस पोर॥
मन की ड्यौढ़ी आर्द्र है, घिरे मेघ घनघोर।
प्रेम-पचासा टेरता, मौसम है मुँहजोर॥
मुँदे-मुँदे से नैन चुप, अलसायी सी देह।
मौसम बेमन लेपता, उर्वर मन पर रेह॥
मन की बंद किताब पर, मौसम धरता धूल।
पन्ने-पन्ने याद हैं, तुम अक्षर, तुम फूल॥
राखी बस धागा नहीं, उन्नत भाव प्रतीक।
गर्वीले भाई रखें, बहना को निर्भीक॥
नाजुक धागा भर नहीं, राखी है विश्वास।
सात्विकता संदर्भ ले, धर्म-कर्म-सुख-आस॥
मान रखो, हे माधवा, तारो हर दुख-ताप।
ज्यौं बाँधे राजा बली, त्यौं मैं बाँधूँ आप॥
एक बहन कर्णावती, कुँवर हुमायूँ एक।
मुँहबोली आक्रांत जब, पंथ रहा ना टेक॥
भाई बल परिवार का, तो बहना शृंगार।
कठिन समय आये कभी, मिलजुल हो उद्धार॥
रिश्ता सुगम बनाइये, मध्य न आवे देह।
बेटी-बेटा रत्न दो, दोनों पर सम-स्नेह॥
छायी हो हरसू खुशी, हों रिश्ते मज़बूत।
घर-घर में किलकारते दीखें बेटी-पूत॥
राखी भरी कलाइयों, के हैं अर्थ सटीक।
लीक छोड़ भाई चलें, बहना खींचे लीक ॥
नन्हें-नन्हें हाथ में नन्हीं राखी बाँध।
मुँह मीठा बहना करे-मेरा भाई चाँद॥
जबसे बहना जा बसी, जहाँ बसे श्रीराम।
राखी बिना कलाइयाँ तबसे उसके नाम॥
मेरे मन की मान थी, मन की ईश सुनाम।
मन से मन को तारती, बहना याद तमाम॥
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