बाबा कानपुरी के दोहे
प्रेम और सद्भाव की, जलती जहाँ मशाल।वहीं ईद है, कीजिए, चलकर वहीं धमाल।।
मुर्गा मछली मीट से, जिनको नहीं गुरेज।
काकरोच से है भला, क्यों उनको परहेज।।
हर विवाद का देखिये, खुद में निहित निदान।।
गौमाता के दर्द का, नहीं जिन्हें अहसास।
सुख से क्या रह पायगें, देते जो संत्रास।।
तन-मन से अस्वस्थ हैं, दिखते सब बेहाल।
ऐसा क्यों, सच जानकर, फिर कर रहे सवाल।
जन्मभूमि, जननी सदृश, गौमाता को जान।
इनकी सेवा नित करो, दो पूरा सम्मान।।
दयामयी-ममतामयी, करुणा की आगार।
गौमाता के ह्रदय में, निहित सकल संसार।।
देवतुल्य है वह स्वयं, कर देखो विश्वास।
रोम-रोम में गाय के, है देवों का वास।।
राजनीति का जब तलक, चखा न जिसने स्वाद
जीवन-मूल्यों से जुड़े, बोले वह संवाद।।
सत्ता-सुख का स्वाद चख, हो जाता बेपीर।
जनहित की बातें उसे, चुभतीं बन शमसीर।।
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