सतीश गुप्ता के दोहे
वादों का मुँह फेरना, रिश्तों के अनुबंध।बिखर गए हैं रेत से, अर्थहीन सम्बंध।।
यश अपयश दोनों हुए, कुसमय एक समान।
रहे अपरिचित मित्र भी, दुर्दिन को पहचान।।
स्वप्र मरूस्थल से हुए, संवेदन के कोष।
रोज निरन्तर टूटता, रहता मन खामोश।।
मृग सा मन मासूम है, दुनिया तीर कमान।
जिन्दा कैसे बच गया, हैरत में है जान।।
रैली सी मजबूरियाँ, आन्दोलित सम्बन्ध।
नारों की गंगाजली, उठा रही सौगन्ध।।
दिवास्वप्र से शहर में, अवचेतन से लोग।
लुप्त हुई संचेतना, जड़ी भूत संयोग।।
अंग-अंग में बँट गई, हिस्सा हिस्सा देह।
पाँचाली-सा बँट गया, भरे हृदय का नेह।।
सपनों के खण्डहर में, संवेदन की लाश।
प्रेम प्रीत से उठ गया, उस दिन से विश्वास।।
धुँआ-धुआँ होती रही, सम्बन्धों की देह।
और राख बन रह गया, वह कंचन सा नेह।।
बुरी तरह घायल हुआ, वह मन कितनी बार।
भग्न हृदय हर पल यहाँ, करता रहा पुकार।।
कुछ उम्मीदें राहतें, इंतजार मनुहार।
संवेदन की सहचरी, व्यक्त करे आभार।।
खन-खन दौलत चल पड़ी, खुले-खुले बाजार।
कोठे पर तुलने लगा, दहलीजों का प्यार।।
संबंधों के वक्ष पर, धुंधले-धुंधले लेख।
नम आँखों की कोर से, अब अतीत मत देख।।
मिले खून से तरबतर, कराहते अरमान।
अरमानों का खून से, रिश्ता तो पहचान।।
आज गवाही दे रहे, जिन्दा नर-कंकाल।
ऐसे निर्मम समय में, संवेदन बदहाल।।
टूटे तो फिर कब जुड़े, धागों से सम्बन्ध।
जैसे छाया धूप का, बना रहा अनुबन्ध।।
पत्थर होकर रह गया, पहले था इन्सान।
संवेदन तो मर गया, जिन्दा रहा गुमान।।
सद्भावों के गीत तो, भटके ठाँव-कुठाँव।
खुशियों के मस्ती भरे, कहाँ रहे अब गाँव।।
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