निदा फाज़ली के दोहे
मैं रोया परदेस में, भीगा माँ का प्यार।दुख ने दुख से बात की, बिन चि_ी बिन तार।।
सातों दिन भगवान के, क्या मंगल या वीर।
जिस दिन सोया तेर तक, भूखा रहा $फकीर।।
बच्चा बोला देखकर, मसजिद आलीशान।
अल्ला तेरे एक को, इतना बड़ा मकान।।
सबकी पूजा एक सी, अलग-अलग है रीत।
मसजिद जाये मौलवी, कोयल गाये गीत।।
बूढ़ा पीपल घाट का, बतियाए दिन-रात।
जो भी गुजरे पास से, सिर पे रख दे हाथ।।
चीखे घर के द्वार की, लकड़ी हर बरसात।
कटकर भी मरते नहीं, पेड़ों में दिन-रात।।
वो सूफी का कौल हो, या पंडित का ज्ञान।
जितनी बीते आप पर, उतना ही सच मान।।
अंदर मूरत पर चढ़े, घी, पूरी, मिष्ठान।
मंदिर के बाहर खड़ा, ईश्वर मांगे दान।।
दर्पण में आँखें बनी, दीवारों में कान।
चूड़ी में बजने लगीं, अधरों की मुसकान।।
माटी में माटी मिले, खोके सभी निशान।
किसमें कितना कौन है, कैसे हो पहचान।।
लेके तन के नाप को, घूमे बस्ती-गाँव।
हर चादर के घेर से, बाहर निकले पाँव।।
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