राजेश प्रभाकर के दोहे
चोरों से ही जा मिले, जो थे पहरेदार।लूट-पाट में हो गए, वे भी हिस्सेदार।।
मंडी लगती पाप की, बिकते जहाँ शरीर।
व्यापारी बनकर खड़े, इज्ज़तदार अमीर।।
सब कुछ उल्टा हो रहा, आया कैसा दौर।
शेर माँद में जा छुपे, गीदड़ हैं सिरमौर।।
बजा-बजा के ढप कहो, पीट-पीटकर ढोल।
नफरत के मिलते नहीं, किसी धर्म में बोल।।
चाटुकार लिखकर गए, ज्यादातर इतिहास।
कैसे लिखते सत्य को, दरबारों के दास।।
कैसी साजिश में फँसे, सीधे सादे लोग।
धर्म जातियों में बँटे, लगा भयानक रोग।।
पहले खुद को ले बदल, फिर उपदेश बखान।
चोला बदला मन नहीं, भगवा में शैतान।।
सहमे-सहमे हंस हैं, मोती चुगते काग।
निर्णायक जब बाज हों, कौन करे समभाग।।
उड़ते पंछी कह गए, बोल बड़े अनमोल।
मज़हब की दीवार पर, नफरत के क्यों बोल।।
मानवता के बीज ले, बिखरा दे चहुँ ओर।
जल बरसे सद्भावना, गरज-गरज घनघोर।।
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