डॉ. नीरज कुमार सिन्हा के दोहे
साधू बन रावण खड़ा, मृग बनकर मारीच।
ठगे हुए हम जी रहे, इन दोनों के बीच।।
नयी सदी के हैं नये, मानक और प्रसंग।
आज कबूतर बाज़ बन, मचा रहे हुड़दंग।।
छाये जंगलराज में, गीदड़ बेपरवाह।
हुआ-हुआ में दब गयी, पुन: भेड़ की आह।।
कोयल को फाँसी मिली, कौवे को सम्मान।
गायें हम कैसे कहो, मधुर-सुरीला गान।।
होंगे पूरे किस तरह, इस उपवन के ख़्वाब।
जड़ में हम जल की जगह, डाल रहे तेज़ाब।।
भँवरों का संगीत सुन, पवन रही है झूम।
हुई तितलियाँ तृप्त अब, फूलों का मुख चूम।।
जीवन में हमको कहाँ, मिल सकता अनुराग।
अब हम तोतों की जगह, पाल रहे हैं काग।।
चिड़ियों के सपने यहाँ, कैसे हों आबाद।
रोज़ देश में बढ़ रही, बाजों की तादाद।।
कैक्टस ने कुछ इस तरह, रचा आज षड़यंत्र।
काँटा-काँटा हो गया, फूलों वाला तंत्र।।
एक सदृश लगने लगे, चाहे दिन या रात।
सूरज जब करने लगा, अँधियारे की बात।।
अभी मेमना है नया, उसे नहीं है ज्ञात।
जंगल से अच्छे नहीं, शहरों के हालात।।
जीना है तो सीख लो, रहना कोयल मूक।
नयी व्यवस्था ने लिखा, देशद्रोह है कूक।।
नयी व्यवस्था ने दिये, कुछ ऐसे संकेत।
आँखों से बहने लगे, आँसू बनकर रेत।।
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