ओउम् शरण आर्य ‘चंचल’ के दोहे
मित्रों के अन्दर हुआ, यह कैसा बदलाव।नमक डालने के लिए, ढूँढ़ रहे हैं घाव।।
बिखर गए संबंध सब, टूट गया विश्वास।
पनघट से लौटा घड़ा, लेकर अपनी प्यास।।
हारा है कोई यहाँ, हुई किसी की जीत।
हार-जीत के खेल में, गई जि़न्दगी बीत।।
कौओं के पूरे हुए, सारे स्वप्न हसीन।
झुरमुट में बैठी मिली, कोयलिया गमगीन।।
चंचल मत उनसे मिलो, यहाँ किसी भी ठौर।
अन्दर से कुछ और जो, बाहर से कुछ और।।
जीना मुश्किल हो गया, तरह-तरह के रोग।
हँसकर के मिलते गले, बैर छिपाकर लोग।।
मानव से मानव डरे, संकट में हर कौर।
आज न कोई दे रहा, सदाचरण को ठौर।।
अहंकार ने कह दिया, बजा-बजाकर ढोल।
रिश्तों का संसार में, रहा न कोई मोल।।
मित्रों का संसार में, यह कैसा अनुराग।
बाहर-बाहर बर्फ है, भीतर-भीतर आग।।
जब से भ्रष्टाचार ने, फैलाये हैं पाँव।
फूट-फूट रोये नगर, बिलख-बिलखकर गाँव।।
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