तुलसीदास के दोहे
दया धर्म का मूल है, पाप मूल अभिमान।
तुलसी दया न छांड़िए, जब लग घट में प्राण।।
राम नाम मनिदीप धरु, जीह देहरी द्वार|
तुलसी भीतर बाहे रहूँ, जों चाहसि उजिआर||
तुलसी दया न छांड़िए, जब लग घट में प्राण।।
राम नाम मनिदीप धरु, जीह देहरी द्वार|
तुलसी भीतर बाहे रहूँ, जों चाहसि उजिआर||
सूपनखा मृग पूतना, दस मुख प्रमुख विचारि।।
तुलसी’ जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ।
तिनके मुंह मसि लागहैं, मिटिहि न मरिहै धोइ।।
जड़ चेतन गुन दोषमय, विश्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहीं पथ, परिहरी बारी निकारी।।
चित्रकूट के घाट पर भई संतान की भीर।
तुलसीदास चंदन घिसे तिलक करे रघुबीर।।
तुलसी अपने राम को, भजन करौ निरसंक।
आदि अंत निरबाहिवो, जैसे नौ को अंक।।
तुलसी मीठे बचन ते, सुख उपजत चहु ओर।
बसीकरण एक मंत्र है, परिहरु बचन कठोर।।
तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या, विनय, विवेक।
साहस सुकृति सुसत्याव्रत, रामभरोसे एक।।
नाम राम को अंक है, सब साधन है सून।
अंक गए कछु हाथ नही, अंक रहे दस गून।।
तनु गुन धन महिमा धरम, तेहि बिनु जेहि अभियान।
तुलसी जिअत बिडम्बना, परिनामहु गत जान।।
बचन बेष क्या जानिए, मनमलीन नर-नारि।
सूपनखा मृग पूतना, दस मुख प्रमुख विचारि।।
तुलसी’ जे कीरति चहहिं, पर की कीरति खोइ।
तिनके मुंह मसि लागहैं, मिटिहि न मरिहै धोइ।।
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