डॉ. रघुनाथ मिश्र ‘सहज’ के दोहे
अर्थ नहीं उस ज्ञान का, जो न सँवारे देश।ज्यों तन मैला है अगर, वहाँ निरर्थक वेश।।
पद लोलुप तू बन गया, लोभ-मोह का दास।
तुझमें होता जा रहा, मानवता का ह्रास।।
भेद-भाव की नींव पर, खड़े महल जो खास।
बहुत ज़रूरी है अभी, सच को करें तलास।।
जनम-मरण दोनों समय, है नंगा इंसान।
धन दौलत सुख जीत पर, फिर कैसा अभिमान।
लंबित मसले ही रहे, लूट-मार-व्यभिचार।
समाधान जिसमें नहीं, बेमतलब सरकार।।
चूल्हों में जाले लगे, और पेटों में आग।
ऐसे में सूझे कहाँ, सुर-सरगम औ’ राग।।
ऊँच नीच के भेद में, बिगड़ गया सद्भाव।
गहरे ही होते गए, सब नासूरी घाव।।
आज़ादी का अर्थ है, सुंदर-सुखद समाज।
लोकतन्त्र का मंत्र है, हो जनता का राज।
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