डॉ. भावना तिवारी के दोहे
बुधिया के दृग में दिखे, दुख का गहरा कूप।
धनिया के हिस्से रही, जीवन भर ही धूप।।
शहर कैक्टस हो गये, चुभने लगे गुलाब।
पत्थर की आँखें हुईं, पत्थर के सब लोग।।
वक़्त मदारी-सा चले, नयी-नयी नित चाल।
और ज़मूरे हम सभी, बजा रहे हैं गाल।।
काँटों से अब हो गया, मन को बहुत लगाव।
फूलों ने हमको दिये, इतने गहरे घाव।।
केवल विज्ञापन हुए, संवेदन-आक्रोश।
निर्धन को बस शून्य है, भरे हुए हैं कोश।।
अन्न उगाए खेत में, टूटा छप्पर तान।
धुँआँ न उसके घर उठा, भूखा मरे किसान।।
आज गीत मन का रहा, अश्रु मनाते हर्ष।
किसने देखा पृष्ठ में, लिखा हुआ संघर्ष।।
कहने पर पाबन्दियाँ, शब्द हुए अब क़ैद।
आँसू आँखों पर रहे, हर पल यों मुस्तैद।।
कैसे जीवन का यहाँ, आयोजित हो जश्न।
चेहरों पर उगने लगे, सन्नाटे औ' प्रश्न।।
समाचार के नाम पर, बिके रात-दिन घाव।
नहीं हुआ उपचार बस, होता रहा रिसाव।।
दुख का बादल फट पड़ा, शहर आगया गाँव।
सुख की छाया के तले, जलते मेरे पाँव।।
चिड़िया फँसती जाल में, जाल डालते सिद्ध।
नहीं जटायु शेष अब, नोच रहे हैं गिद्ध।।
कालीनों के ढेर में, जमी दर्द की धूल।
गुलदानों में काग़ज़ी, सजे हुए हैं फूल।।
अगरबत्तियों-सी जली, दुख से हर अनुबन्ध।
सुलगन मन के कोश में, बाहर रही सुगन्ध।।
परदों के पीछे रहा, मन का सारा सत्य।
रिश्ते भी छलते रहे, करते रहे कुकृत्य।।
आये कोई थाम ले, पीड़ाओं का हाथ।
कब तक बाँटें दर्द हम, दीवारों के साथ।।
मुस्कानें भी कर रहीं, मुझसे अब प्रतिवाद।
कैसे मैं हँसकर करूँ, पीड़ा का अनुवाद।।
नदिया तट पर हूँ खड़ी, कोस रही दुर्भाग्य।
पानी आँखों में भरा, भीतर व्याकुल आग।।
खूँटी पर टाँगा गया, लोकलाज का चीर।
मर्यादा सिर नत किये, विवश बहाये नीर।।
कलियों पर प्रतिबन्ध हैं, भँवरे हैं आज़ाद।
सुरभित कैसे हो चमन, कैसे हो आबाद।।
शहर कैक्टस हो गये, चुभने लगे गुलाब।
पत्थर की आँखें हुईं, पत्थर के सब लोग।।
वक़्त मदारी-सा चले, नयी-नयी नित चाल।
और ज़मूरे हम सभी, बजा रहे हैं गाल।।
काँटों से अब हो गया, मन को बहुत लगाव।
फूलों ने हमको दिये, इतने गहरे घाव।।
केवल विज्ञापन हुए, संवेदन-आक्रोश।
निर्धन को बस शून्य है, भरे हुए हैं कोश।।
अन्न उगाए खेत में, टूटा छप्पर तान।
धुँआँ न उसके घर उठा, भूखा मरे किसान।।
आज गीत मन का रहा, अश्रु मनाते हर्ष।
किसने देखा पृष्ठ में, लिखा हुआ संघर्ष।।
कहने पर पाबन्दियाँ, शब्द हुए अब क़ैद।
आँसू आँखों पर रहे, हर पल यों मुस्तैद।।
कैसे जीवन का यहाँ, आयोजित हो जश्न।
चेहरों पर उगने लगे, सन्नाटे औ' प्रश्न।।
समाचार के नाम पर, बिके रात-दिन घाव।
नहीं हुआ उपचार बस, होता रहा रिसाव।।
दुख का बादल फट पड़ा, शहर आगया गाँव।
सुख की छाया के तले, जलते मेरे पाँव।।
चिड़िया फँसती जाल में, जाल डालते सिद्ध।
नहीं जटायु शेष अब, नोच रहे हैं गिद्ध।।
कालीनों के ढेर में, जमी दर्द की धूल।
गुलदानों में काग़ज़ी, सजे हुए हैं फूल।।
अगरबत्तियों-सी जली, दुख से हर अनुबन्ध।
सुलगन मन के कोश में, बाहर रही सुगन्ध।।
परदों के पीछे रहा, मन का सारा सत्य।
रिश्ते भी छलते रहे, करते रहे कुकृत्य।।
आये कोई थाम ले, पीड़ाओं का हाथ।
कब तक बाँटें दर्द हम, दीवारों के साथ।।
मुस्कानें भी कर रहीं, मुझसे अब प्रतिवाद।
कैसे मैं हँसकर करूँ, पीड़ा का अनुवाद।।
नदिया तट पर हूँ खड़ी, कोस रही दुर्भाग्य।
पानी आँखों में भरा, भीतर व्याकुल आग।।
खूँटी पर टाँगा गया, लोकलाज का चीर।
मर्यादा सिर नत किये, विवश बहाये नीर।।
कलियों पर प्रतिबन्ध हैं, भँवरे हैं आज़ाद।
सुरभित कैसे हो चमन, कैसे हो आबाद।।
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