चन्द्रसेन विराट के दोहे
भीमसेन जोशी गज़ब, खरज भरी आवाज।जब भी गायें डूबकर, डूबे रसिक समाज।।
कभी किशोरी जी कहीं, बुने स्वरों के ख्वाब।
इस विशिष्ट आवाज का, कोई नहीं जवाब।।
बेगम अख़्तर का सुनें, कभी $गज़ल का गान।
मूर्तिमंत आये $गज़ल, पहने नव परिधान।।
$गज़लसरा मेहंदीहसन, जाने-माने ज्येष्ठ।
जयेष्ठ नहीं केवल उन्हें, कहना होगा श्रेष्ठ।।
गायें खुद को भूलकर, जब पण्डित जसराज।
क्या सुर का माधुर्य है, क्या सुर की परवाज।।
राग-रागिनी का सहज, मन जाता है पर्व।
झूम-झूम कर गा रहे, हों कुमार गंधर्व।।
लता, लता है पेड़ बिन, बेल चढ़ी आकाश।
ऐसे स्वर साधे कि स्वर, कहते हैं शाबाश।।
मानी सीख रहीम की, पानी रखा सँभाल।
इज्जत से जीवन जिया, बनकर रहे मिसाल।।
अक्षर-माला सीख ली, ढाई अक्षर छोड़।
पोथी रट पंडित बने, जोड़े लाख करोड़।।
रचते हैं ज्ञानेश्वरी, ज्ञानदेव अवतार।
वेदपाठ भैंसा करे, चले अचल दीवार।।
हृदय, बुद्धि की संतुलित, लेना हो यदि गंध।
तो ‘कुबेरजी’ का पढ़ो, कोई ललित-निबंध।।
चखना चाहो प्रेम-रस, दर्शन का नवनीत।
नीरज जी से तुम सुनो, उनका गोपी-गीत।।
सगुण भक्त तुलसी रहे, निर्गुण भक्त कबीर।
भक्ति-भाव में फर्क की, उनमें नहीं लकीर।।
मीरा इकतारा बजा, गोविंद लेती मोल।
कबिरा करघे पर कहें, घूँघट के पट खोल।।
वैष्णव जन उनको कहो, जो जाने पर-पीर।
नरसी महता गा रहे, भजन गहन गंभीर।।
छत पर था पारस रखा, गये न उसके पास।
लोहे की राँपी लिए, मगन रहे रैदास।।
था मेंढक़ जल के सहित, तुड़वाई चट्टान।
रामदासजी ने किया, चूर शिवा-अभिमान।।
पद गा लेते सूर जब, तक ही करते भोज।
बालकृष्ण देते उन्हें, एक नया पद रोज।।
तुकाराम पर चढ़ गया, यों विठ्ठल का रंग।
झेली पत्नी की कलह, रचते हुए अभंग।।
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