शाद बागल कोटी के दोहे
जिसका कोई है नहीं, करते उसे अनाथ।लेकिन जग में ‘शादजी’, होता उसका नाथ।।
दिन के प्यासे होंट हैं, भूखी-भूखी साँझ।
मेघराज परदेश में, धरती हो गई बाँझ।।
मान लुटे-पीड़ा मिले, खाकर लूटा माल।
मान बचे-सुख-धन मिले, खाकर रोटी दाल।।
नारी के जब हाथ में, आँसू का हथियार।
बात सिपाही मान ले, माने है सरदार।।
भले-बुरे दिन काटकर, छोड़ेंगे संसार।
सौदा लेकर घर चलो, दुनिया है बाज़ार।।
मैला मन था काम क्या, आता कोई जाप।
बुरे करम ही बन गये, जीवन भर का शाप।।
घबराकर संसार से, क्यों लेता संयास।
आशा-बंधन तोड़ दे, रख उस पर विश्वास।।
मन में नफरत ‘शादजी’, हाथों में हो आग।
आपस की ही फूट से, फूटें सबके भाग।।
कैसा युग यह रामजी, बढ़ता जाये पाप।
मनके भीतर खोट है, बाहर राम-अलाप।।
गुज़रा कल है, राख सब, सच्चा सोना आज।
आनेवाला ‘शाद’ कल, हो तेरा मुहताज।।
अन्दाता जो देश का, सब उससे अनजान।
कदम-कदम पर सह रहा, आज वही अपमान।।
खेत बिके, खलिहान भी, जीना हुआ मुहाल।
सब कुछ लुट जाये भले, पगड़ी, देख-संभाल।।
इजजत-शोहरत का सबब, चाय-सुपारी-पान।
‘शाद’ हमारे दौर का, बहुत बड़ा सम्मान।।
उम्मीदों का खूँ हुआ, मन $गम का अम्बार।
घूम रहा है दर्द का, बनकर वह अवतार।।
चंचल मन की ‘शादजी’, थामे रहो लगाम।
वरना, जीवन दौड़ में, होगे तुम नाकाम।।
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