शंकर शरण लाल बत्ता के दोहे
मारो मत माँ गर्भ में, बेटी करे पुकार।अपनी ही क्यों कोख पर, करती अत्याचार।।
नहीं बनूँगी माँ कभी, मैं अपनों पर भार।
मुझको भी तो देखने, दो सुन्दर संसार।।
वंचित मुझको मत करो, कहती बारम्बार।
आने दो संसर में, करती यही पुकार।।
नहीं सामने हूँ मगर, अनुभव करतीं आप।
मुझे मार कर तो नहीं, अपने ऊपर पाप।।
जहाँ विद्वता से कभी, मिलता था सम्मान।
धन-दौलत से अब वहाँ, होती है पहिचान।।
बदल गया वातावरण, बदल गया इन्सान।
सब कुछ महँगा हो गया, पर सस्ता ईमान।।
कल क्या होगा भूल जा, मत कर कल को याद।
अच्छा हो यदि आज से, करले तू संवाद।।
मन मैला तन साफ है, कैसे हो पहिचान।
दिखते हैं सज्जन मगर, हैं पक्के शैतान।।
पद पाते ही मनुज का, डिग जाता ईमान।
दो कौड़ी के मोल में, बिक जाता इन्सान।।
अनाचार व्यभिचार का, बढ़ता जाता ग्राफ।
मिल पाता सबको कहा, मगर आज इन्साफ।।
बिखर रहे रिश्ते सभी, टूट रहे परिवार।
मर्यादाओं का हुआ, पूरा बंटाधार।।
एक दीप से प्रज्वलित, होते कोटिक दीप।
कर दे जग आलोकमय, बन जा खुद प्रदीप।।
संघर्षों के बीच में, खिलता जीवन फूल।
मौजों से ही जूझक र, पाता माँझी कूल।।
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