शम्मी-शम्स-वारसी के दोहे
गूँगी बनकर माँ घुटे, माँ कितनी लाचार।सब सोएँ जब चैन से, बात करे दीवार।।
ताने मारे रात-दिन, उसकी इक-इक डाल।
बूढ़ा बरगद खाँसता, पंछी सब खुशहाल।।
विपदा लाये दिन बुरे, बैरी हो संसार।
रूठे रानी साहिबा, खूँटी निगले हार।।
तितली-जुगनू-फूल से, बोले कोयल कूक।
किसने दे दी हाथ में, बच्चों को बंदूक।।
सैलानी सब खींचते, भारत की तसवीर।
दुनिया देखे शौक से, भूख-गरीबी-पीर।।
डाकू बनते जुल्म से, चोर बनाये भूक।
दीन-दुखी के हाथ में, बेड़ी या बन्दूक।।
बेला-चंपा-मोगरा, जूही-कमल-गुलाब।
कितने चुबन प्यार के, गोरी करे हिसाब।।
मुखड़ा पीले चाँद-सा, जैसे सरसों फूल।
दहके देह कपास-सी, नस-नस चुभें बबूल।।
गोरी सहमी देखकर, गुमसुम ठहरी झील।
नीचे बैठी फाख्ता, ऊपर उड़ती चील।।
दो नयनों में काँपती, साजन की तसवीर।
बैरन सीटी रेल की, रोज चलाये तीर।।
निभर्य जीना सीखिए, मानो ‘शम्स’ सुझाव।
साँपों की फँुफकार से, बुझता नहीं अलाव।।
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