संदीप सृजन के दोहे
जिस घर में लेते रहे, हम जीवन की श्वास।उस दर से संभव नहीं, अब जीवन की आस।।
स्वप्न संजोए थे जहाँ, था जीवन का ठाम।
उस घर के हमको मिले, कुछ मुट्ठी भर दाम।।
चौका चूल्हा सिगडियाँ, घट्टी के वो पाट।
बचपन की अठखेलियाँ, खोले मिली कपाट।
पुरखों की जागीर का, नहीं बचा अब अंश।
टुकड़े हो कर बिक गई, बिखर गया है वंश।।
अर्थ खोज लें शब्द का, कहाँ रहे वे लोग।
अब शब्दों के हो रहे, दो अर्थी उपयोग।।
सच्चाई के नाम पर, मौन मिले अखबार।
अगर कलाई खोल दें, गिर जाए सरकार।।
भूल गये चाणक्य की, रीति नीति को आज।
दुश्मन का विश्वास कर, खोए है जाँबाज।।
अब मिलते हैं मन कहाँ, होता है व्यापार।
लफ्जों की कारीगरी, बना हुआ है प्यार।।
वेलेंटाइन नाम पर, चल निकला व्यापार।
प्यार बजारू हो गया, खत्म हुए संस्कार।।
कदम ताल हो एक सी, हो हाथों में हाथ।
निर्धारण कर लक्ष्य का, मिलकर चलिए साथ।
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