कुँअर उदयसिंह अनुज के दोहे
न्याय माँग पर पेड़ की, हुई गहन तफ़्तीश।
बहस कुल्हाड़ा कर रहा, आरी न्यायाधीश।।
पवन फागुनी छेड़ती, हँसे प्रीत की झील।
बजी चंग जब देह में, बहके मन का भील।।
क्रूर समय ने रौंद दी, नर्म नेह की दूब।
करमजली फिर-फिर उगी, मन-आँगन में ख़ूब।।
सन्नाटे में है शहर, सड़कें सारी मौन।
चला गया है पोतकर, लहू यहाँ पर कौन।।
ख़सरे में अंकित हुआ, हिस्सा रक़बा कूप।
पानी सारा ले गयी, बँटवारे में धूप।।
बादल भी उमड़े नहीं, नहीं दामिनी शोर।
नेह-मेह बरसा नहीं, कब नाचे मन-मोर।।
सूरज फेरी फेरता, धूप पीठ पर लाद।
ज्यों देती है ठंड में, गर्म जलेबी स्वाद।।
रहीं सहम कर खिड़कियाँ, डरे-डरे से द्वार।
लील गया तहज़ीब को, जब उन्मादी ज्वार।।
खड़ा राह में कोहरा, पहने भूरा कोट।
बहू सरीखी जेठ से, धूप खड़ी ले ओट।।
पानी उतरा नेह का, मुरझाया मन-फूल।
चुभे आँख में कील-सी, सम्बंधों की धूल।।
नीव हिली सद्भाव की, धँसा धैर्य-प्रासाद।
तलवारों-सा तन गया, सड़कों पर उन्माद।।
पेट मसलती झुग्गियाँ, नौनिहाल बेहाल।
मन्दिर-मस्जिद पर टँगे, उनके सभी सवाल।।
रँगी प्रीत से खिड़कियाँ, द्वार धरी मुस्कान।
तब जाकर यह घर बना, इतना आलीशान।।
सड़कें सुरसा-सी हुईं, लील गयीं सब पेड़।
धूप कसाई की छुरी, चमड़ी रही उधेड़।।
कभी फूल पर बैठतीं, कभी आम के बौर।
नये चलन की तितलियाँ, ढूँढ़ें नित नव ठौर।।
इन्द्रधनुष जब देखती, मोर-पाँख-सी सोच।
छूने की हसरत मगर, मुट्ठी में संकोच।।
माटी की इक भीत थी, आले में था ठाँव।
रात अमावस ढूँढता, दीपक खोया गाँव।।
घिग्घी पीपल की बँधी, नीम खड़ा चुपचाप।
चाबुक लू की जब चले, बरगद करता जाप।।
दहशत में ऐसे खड़ी, अमराई में छाँव।
जेठ दिखाए आँख ज्यों, कँपें बहू के पाँव।।
बोयी फ़सलें आस की, मन ही मन में काट।
असली माल समेटकर, भागे ठग-सम्राट।।
भरी दुपहरी खींचता, गुलमोहर जब ध्यान।
पगड़ी बाँधे खेत में, लगता खड़ा किसान।।
बोया घात घमण्ड जो, तुमने मन के खेत।
चाहे जितना सींच लो, फ़सल उगेगी रेत।।
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