डॉ.तारादत्त 'निर्विरोध' के दोहे
नारी अपने जन्म से, लक्ष्मी का अवतार|
समझ नहीं पाया उसे, यह निर्धन संसार||
वह है वीणावादिनी, और वही झंकार|
वही रूप दुर्गा यहाँ, करती रिपु संहार||
नारी माँ है बहन भी, बेटा का भी रूप|
बिन नारी संसार यह, जैसे अँधा कूप||
एक आँख श्रृंगार है, एक आँख में क्रोध|
पुरुष नहीं पर कर सका, नारी मन पर शोध||
ममता की मन्दाकिनी, समता का आधार|
पुरुष नहीं पर जानता, यह जीवन का सार||
सुख-शुचिता संबंध का, मणिकांचन संयोग|
उसको पर मिलता रहा, नित अभाब कर्मयोग||
देह-गंध स्पर्श सुख, या मधुर मंद मुस्कान|
दोष नहीं गुण हैं सभी, ये नारी की शान||
प्रकृति और पुरुषार्थ में, नारी का है साथ|
हर टूटन को जोड़ता, उसका पीला हाथ||
शब्द शक्ति से हैं सभी, रंग-रूप-रस-राग|
बिना शब्द जल भी यहाँ, जैसे बुझती आग||
अक्षर-अक्षर शब्द हैं, शब्द-शब्द तक अर्थ|
ज्ञान राशी को छोड़कर, दुनिया में सब व्यर्थ||
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