डॉ.रामसनेही लाल शर्मा ‘यायावर’ के दोहे
जहाँ कर्म की शक्ति ने, लिया ज्ञान-कर थाम।
वहीं देह पर लिख गया, नृप विदेह का नाम।।
सुकृति-सुनयना जननि हो, जनक धर्म-सम्भार।
तब संस्कृति की जानकी, लेती है अवतार।।
त्याग, योग दोनों हुए, मिलकर जहाँ अनन्य।
प्रभुता में प्रभु से मिले, जनकराज तुम धन्य।।
भोग, त्याग मिल, झुक छुएँ, जहाँ योग के पाँव।
मिथिला वहीं पुनीत है, जनकराज का गाँव।।
चलाचली का है जनक, यह कैसा व्यापार?
चलीं जानकी चल पड़ी, अश्रु-नदी की धार।।
कोई वन, कोई अवध, जलती कैसा भाज्य?
कहाँ कुसुमतन बेटियाँ, कहाँ कठिन दुर्भाज्य।।
भाव-भक्ति रस में सना, कर्म रहा निष्काम।
यों ही नहीं विदेह के, घर तक पहुँचे राम।।
पुत्रि अस्मिता-जानकी, रटे तुम्हारा नाम।
अहंकार का शिवधनुष, तोड़ो हे प्रभु राम।।
रामचन्द्र मुख देखकर, जगी भाव की पीर।
ज्वारग्रस्त होने लगा, जनक-सिन्धु गंभीर।।
मन वैरागी देखता, रोम-रोम का नाच।
राम देखकर ज्ञान-मृग, भागा भरी कुलाँच।।
कर्म, धर्म, वैराज्य, व्रत, योग-भोग संसार।
जगजननी के हे पिता, तुम्हें नमन सौ बार।।
सुकृति-सुनयना जननि हो, जनक धर्म-सम्भार।
तब संस्कृति की जानकी, लेती है अवतार।।
त्याग, योग दोनों हुए, मिलकर जहाँ अनन्य।
प्रभुता में प्रभु से मिले, जनकराज तुम धन्य।।
भोग, त्याग मिल, झुक छुएँ, जहाँ योग के पाँव।
मिथिला वहीं पुनीत है, जनकराज का गाँव।।
चलाचली का है जनक, यह कैसा व्यापार?
चलीं जानकी चल पड़ी, अश्रु-नदी की धार।।
कोई वन, कोई अवध, जलती कैसा भाज्य?
कहाँ कुसुमतन बेटियाँ, कहाँ कठिन दुर्भाज्य।।
भाव-भक्ति रस में सना, कर्म रहा निष्काम।
यों ही नहीं विदेह के, घर तक पहुँचे राम।।
पुत्रि अस्मिता-जानकी, रटे तुम्हारा नाम।
अहंकार का शिवधनुष, तोड़ो हे प्रभु राम।।
रामचन्द्र मुख देखकर, जगी भाव की पीर।
ज्वारग्रस्त होने लगा, जनक-सिन्धु गंभीर।।
मन वैरागी देखता, रोम-रोम का नाच।
राम देखकर ज्ञान-मृग, भागा भरी कुलाँच।।
कर्म, धर्म, वैराज्य, व्रत, योग-भोग संसार।
जगजननी के हे पिता, तुम्हें नमन सौ बार।।
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