लक्ष्मण प्रसाद लड़ीवाला के दोहे
सिद्धि मिले नव वर्ष में, सद्कर्मों का साथ।स्वच्छ हृदय मन भाव हो, पाँव पड़े सद्पाथ।।
काट भुजाए देश की, किया हमें आजाद।
चुभते अंतस शूल से, मन में है अवसाद।।
गांधी के इस देश में, हिंसक हैं आबाद।
निरपराध हैं जेल में, अपराधी आजाद।।
संत वेष में घूमते, दुष्कर्मी आजाद।
नारी पीड़ा सह रही, लिए हुए अवसाद।।
न्याय-पालिका से करे, जनता कुछ फ़रियाद।
बची जहाँ कुछ शेष है, आजादी की खाद।।
शुभ सरिता बहती रहे, मन में हो सत्संग।
आँगन में खिलते रहें, प्रेम प्रीति के रंग।।
हो सकता कल्याण है, छोड़े मन दुर्भाव।
करे बुराई अन्य की, खुद पर पड़े प्रभाव।।
फैशन में है आजकल, करना उलटी बात।
कहते दिन को रात जब, कैसे सुखद प्रभात।।
तन मन भी चंगा रहे, बहती अमृत धार।
मानव बाधक क्यों बने, सतत बहे रसधार।।
मोक्षदायिनी कह रहे, करते कुम्भ स्नान।
अंतर्मन निर्मल नहीं, कैसे दे वरदान।।
दर-दर खाते ठोकरें, जग में छाने खाक।
देख सफलता अन्य की, होते रहे अवाक।।
माँ बापू की सीख थी, पत्थर खिंची लकीर।
किंतु मुझे लगती रही, बस वह टेढ़ी खीर।।
डींग हाँकते बेवजह, शेखी रहे बघार।
खुद के पैरों पर वही, रहे कुल्हाड़ी मार।।
देख सफलता अन्य की, होते रहे अवाक।।
माँ बापू की सीख थी, पत्थर खिंची लकीर।
किंतु मुझे लगती रही, बस वह टेढ़ी खीर।।
डींग हाँकते बेवजह, शेखी रहे बघार।
खुद के पैरों पर वही, रहे कुल्हाड़ी मार।।
कहाँ तराजू आजकल, करती पूरा तोल।
सच्चे कड़वे बोल का, रहा न कोई मोल।।
आडम्बर में गुम हुए, जीने के सब ढंग।
जाति-धर्म के भेद का, चढ़ा सभी पर रंग।।
घोटाले करते फिरें, रचें खूब षड्यंत्र।
पा जाते सम्मान वे, कैसा यह जनतंत्र?
करें झूठ की पैरवी, देकर खूब दलील।
सत्य वहाँ होता रहे, हर पल बहुत जलील।।
चला मुकदमा चार पर, छूट गए दो लोग।
कर न सके जो पैरवी, रहे सजा वे भोग।।
सच्चे कड़वे बोल का, रहा न कोई मोल।।
आडम्बर में गुम हुए, जीने के सब ढंग।
जाति-धर्म के भेद का, चढ़ा सभी पर रंग।।
घोटाले करते फिरें, रचें खूब षड्यंत्र।
पा जाते सम्मान वे, कैसा यह जनतंत्र?
करें झूठ की पैरवी, देकर खूब दलील।
सत्य वहाँ होता रहे, हर पल बहुत जलील।।
चला मुकदमा चार पर, छूट गए दो लोग।
कर न सके जो पैरवी, रहे सजा वे भोग।।
मेरे दोहो को स्थान देने के लिए हार्दिक आभार श्री Raghuvinder Yadav जी ।
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