ज्ञानप्रकाश 'पीयूष' के दोहे
भीगी-भीगी भोर है, पुरवा चले बयार।साजन-सावन का लगे, छलक रहा है प्यार।।
2
मिलती थी पहले हमें, मूल्यों की सौगात।
अर्थतंत्र के काल में, बेमानी-सी बात।।
3
कहना है कह दीजिए, मन की सच्ची बात।
नहीं कही यदि वक्त पर, दुख देगी दिन-रात।।
4
शिक्षा ऐसी चाहिए, दूर करे अज्ञान।
उज्ज्वल करे चरित्र को, मानव का सम्मान।।
5
जीवन उनका धन्य है, हरें और की पीर।
संकट में सेवा करें, खूब बँधाएँ धीर।।
6
नर में गुण तो हैं बहुत, है ईश्वर का रूप।
कामुक होकर नाश का, खोद रहा है कूप।।
7
मत होना हर्षित कभी, करके अत्याचार।
मासूमों की आह में, छिपे हुए अंगार।।
8
नेताओं के जाल में, फँस जाते जो लोग।
आश्वासन के भोगते, फिर वे छप्पन भोग।।
9
सपना मन में एक है, आऊँ जग के काम।
सूरज-सी दूँ रोशनी, कर्म करूँ निष्काम।।
10
जो साधन सम्पन्न हैं, फिर भी नहीं उदार।
शोषण करते जीव का, है उनको धिक्कार।।
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