दीनानाथ सुमित्र के दोहे
कहाँ छुपे हो कृष्ण जी, खोज रहे हैं नंद।
कंशराज ने कर दिया, गोकुल मथुरा बंद।।
बनिए की सरकार है, करे खूब व्यापार।
सेठ कमाते जा रहे, निर्धन हैं बेकार।।
चंदन वन है जल रहा, मरुथल में बरसात।
अजब विसंगति वक्त की, देख रहा दिन-रात।।
गाँव-गाँव में जा रही, बड़े शहर की आग।
रिश्तों को डसने लगे, स्वार्थ, लोभ के नाग।।
शेर सभी चुप हैं खड़े, गर्दन पर तलवार।
सत्ता पाकर कर रहे, हू-हू खूब सियार।।
बारी-बारी लूटते, सभी आस-विश्वास।
वह ही शोषक बन गया, सत्ता जिसके पास।।
चाँदी का चम्मच रखे, रखे स्वर्ण का थाल।
लाल टमाटर-से हुए, नेताजी के गाल।
कैसे होगा देश का, भैयाजी उद्धार।
पद लेकर बैठे हुए, कौए, गिद्ध, सियार।।
कुर्सी ही भगवान है, कुर्सी ही पहचान।
कुर्सी झट से भूलती, वीरों का बलिदान।।
पैसों पर बिकने लगे, राजनीति के शेर।
वही रहे सरकार में, जो हैं धनिक-कुबेर।।
सूर्य, अँधेरे से मिला, दिया रात का साथ।
नहीं रोशनी मिल रही, दिन हो गया अनाथ।।
संसद जबसे हो गया, काग, चील का ठाँव।
तबसे मरघट हो गए, विकसित होते गाँव।।
अरबपति नेता बने, नहीं भूख का मोल।
अंदर से शैतान हैं, चाहे उजले खोल।।
बगुले छुट्टा घुमते, मछली गई तिहाड़।
न्यायालय उसका हुआ, जिसके पास जुगाड़।।
प्रेम-पंथ का हो गया, अब पैसा आधार।
अब पैसों को देखकर, लैला करती प्यार।।
कोयल तेरे गान को, कौन करे स्वीकार।
कौए का दरबार है, कौए की सरकार।।
सिंहासन से दूर हैं, हम मजदूर किसान।
चाहे हँसता इंडिया, रोता हिन्दुस्तान।।
बदनसीब इंसान वो, जो बन गया किसान।
उसकी किस्मत को लिखे, सरकारी भगवान।।
मंत्री का बेटा हुआ, राजनीति में पास।
पार्टी में आते हुआ, नेताओं में खास।।
दारोगा जी जानते, किसका देना साथ।
धनी देव पकड़े अगर, कौन भरेगा हाथ।।
खोई है संवेदना, सहिष्णुता लाचार।
पंथ देख करने लगी, राजनीति व्यवहार।।
सत्ता सब दिन से रही, जनता के विपरीत।
जनता सिर्फ़ कराहती, सत्ता गाये गीत।।
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